राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Sunday, December 29, 2024

श्रीराम गीता-भाग १८ (अंतिम भाग )- भगवान राम का हनुमान जी को अवतार की दृष्टि से अपना परिचय देना

 

जो समस्त लोकों एवं संपूर्ण देहधारियों को मोह में डालने वाली है, वह माया भी मुझ ईश्वर के आदेश से ही सारा व्यवहार चलाती है ।

            

  जो मोहरूपी कलिल का नाश करके सदा परमात्म पद का साक्षात्कार कराती है, वह व्रह्मविद्या भी मुझ महेश्वर की आज्ञा के ही अधीन है । इस बिषय में बहुत कहने से क्या लाभ यह सारा जगत मेरी शक्ति से ही उत्पन्न हुआ है, मुझसे ही इस विश्व का भरण-पोषण होता है तथा अंततोगत्वा सबका मुझमें ही प्रलय होता है-


बहुनात्र किमुक्तेन मम शक्त्यात्मकंजगत ।।

मयैव पूर्यते विश्वं मय्येव प्रलयं ब्रजेत् ।।

 

मैं ही स्वंयप्रकाश सनातन भगवान ईश्वर हूँ । मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ । मुझसे भिन्न किसी बस्तु की सत्ता नहीं है । हनुमन ! यह परम ज्ञान मैंने तुमसे कहा है । इसे जानकर जीव जन्म-मृत्यु रूप संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ।

 

पवननंदन मैंने माया का आश्रय लेकर राजा दशरथ के घर में अवतार लिया है । वहाँ मैं राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुहन इन चार रूपों में प्रकट हुआ हूँ । यह सारी बात मैंने तुम्हें बता दी । कपिश्रेष्ठ मैंने कृपापूर्वक तुम्हें अपने स्वरूप का परिचय दिया है । इसे सदा हृदय में धारण करते रहना चाहिए । कभी भूलना नहीं चाहिए ।


इसके बाद राम जी अपने और हनुमान जी के मध्य संवाद-श्रीराम गीता की महिमा-महात्म्य बताते हैं । और इसके पढ़ने-सुनने तथा पाठ करने का फल  आदि बताते हैं ।

 

फिर हनुमानजी अपने प्रभु श्रीराम को पहचानकर, जानकर उनकी बहुत सुंदर स्तुति किया।  


।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान ।।

 

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