जो समस्त लोकों एवं संपूर्ण देहधारियों को मोह में डालने वाली
है, वह माया भी मुझ ईश्वर के आदेश से ही सारा व्यवहार चलाती है ।
जो मोहरूपी कलिल का
नाश करके सदा परमात्म पद का साक्षात्कार कराती है, वह व्रह्मविद्या भी मुझ महेश्वर
की आज्ञा के ही अधीन है । इस बिषय में बहुत कहने से क्या लाभ यह सारा जगत मेरी
शक्ति से ही उत्पन्न हुआ है, मुझसे ही इस विश्व का भरण-पोषण होता है तथा अंततोगत्वा
सबका मुझमें ही प्रलय होता है-
बहुनात्र किमुक्तेन मम
शक्त्यात्मकंजगत ।।
मयैव पूर्यते विश्वं मय्येव प्रलयं
ब्रजेत् ।।
मैं ही स्वंयप्रकाश सनातन भगवान ईश्वर हूँ । मैं ही परब्रह्म
परमात्मा हूँ । मुझसे भिन्न किसी बस्तु की सत्ता नहीं है । हनुमन ! यह परम ज्ञान मैंने
तुमसे कहा है । इसे जानकर जीव जन्म-मृत्यु रूप संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ।
पवननंदन मैंने माया का आश्रय लेकर राजा दशरथ के घर में अवतार
लिया है । वहाँ मैं राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुहन इन चार रूपों में प्रकट हुआ हूँ ।
यह सारी बात मैंने तुम्हें बता दी । कपिश्रेष्ठ मैंने कृपापूर्वक तुम्हें अपने
स्वरूप का परिचय दिया है । इसे सदा हृदय में धारण करते रहना चाहिए । कभी भूलना
नहीं चाहिए ।
इसके बाद राम जी अपने और हनुमान जी के मध्य संवाद-श्रीराम गीता की
महिमा-महात्म्य बताते हैं । और इसके पढ़ने-सुनने तथा पाठ करने का फल आदि बताते हैं ।
फिर हनुमानजी अपने प्रभु श्रीराम को पहचानकर, जानकर उनकी बहुत
सुंदर स्तुति किया।
।। जय श्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमान ।।
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