राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Sunday, March 24, 2024

श्रीराम गीता के अंतर्गत हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-३

 

संपूर्ण कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-

सर्वकामः सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।

सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।

 

भाग-२ से आगे-

मन्त्रद्रष्टा ऋषि निश्चय ही परमात्मा को नित्य एवं सदसत स्वरूप समझते हैं । व्रह्म्वादी महात्मा प्रधान नाम से विख्यात, गुणों की साम्यावस्था रूप प्रकृति को भलीभाँति जानकर उसी को पांचभौतिक जगत का उपादान कारण बताते हैं । यही कारण है कि आत्मा कूटस्थ और निरंजन होने पर भी इस प्रकृति में संगत हो गया है । वह अपने को प्रकृति से अभिन्न मानने लगा है । मैं बस्तुतः अविनाशी ब्रह्म हूँ , ऐसा अपने को नहीं समझता । अतः अनात्म पदार्थ में आत्मबुद्धि करने से ही दुख और सुख होते हैं ।

 

  राग-द्वेष आदि सारे दोष भ्रम के ही कारण इस जीव को कर्तव्य-कर्म में पुण्य और पाप की भावना होती है । ऐसा श्रुति का कथन है । उसी भावना के वशीभूत होकर वह वैसे कर्मों में प्रवृत्त होता है और उन कर्मों के ही फल भोगने के लिए संपूर्ण देहधारियों के समस्त शरीरों की उत्पत्ति होती है । वस्तुतः आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, कूटस्थ, दोषरहित तथा अद्वितीय है । वह मायाशक्ति से ही भेद या नानात्व को प्राप्त होता है , स्वरूप से नहीं । इसलिए ऋषि-मुनियों ने अद्वैत को ही पारमार्थिक सिद्धांत बताया है । भेद अव्यक्त स्वभाव से होता है । वह अव्यक्त स्वभाव आत्मा के आश्रित रहनेवाली माया ही है ।

 

  जैसे धूम के संपर्क से आकाश मलिन नहीं होता है, उसी प्रकार अन्तः करण में उत्पन्न होने वाले रागादि दोषों से आत्मा लिप्त नहीं होता । जैसे विशुद्ध स्फटिक-शिला अपनी प्रभा से सदा एक-सी प्रकाशित होती है, उसी प्रकार उपाधि रहित आत्मा सदा निर्मल रूप से प्रकाशित होता है । विद्वान पुरुष इस जगत को ज्ञान स्वरूप ही बताते हैं, किन्तु दूसरे कुत्सित बुद्धिवाले अज्ञानी लोग इसे अर्थ स्वरूप अर्थात नाना पदार्थ रूप देखते हैं । जो कूटस्थ निर्गुण व्यापक तथा स्वभावतः चैतन्य स्वरूप है, वही परमात्मा भ्रांत दृष्टिवाले पुरुषों को भौतिक पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर होता है । जैसे विशुद्ध स्फटिक रक्तिका के व्यवधान से लोगों को लाल रंग का दिखाई देता है । उसी तरह परम पुरुष परमात्मा माया के व्यवधान से प्रपंचमय देखने लगता है । इसलिए मुमुक्ष पुरुषों को चाहिए कि वे आत्मा को अविनाशी, शुद्ध, नित्य, सर्वव्यापी एवं निर्विकार मानकर उसी रूप में उसका श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करें ।

रामजी का हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-२ 


।। जयश्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान जी ।।

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