( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )
संपूर्ण कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-
सर्वकामः
सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।
सर्वतः
पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।
भाग-२
से आगे-
मन्त्रद्रष्टा
ऋषि निश्चय ही परमात्मा को नित्य एवं सदसत स्वरूप समझते हैं । व्रह्म्वादी महात्मा
प्रधान नाम से विख्यात, गुणों की साम्यावस्था रूप प्रकृति को भलीभाँति जानकर उसी
को पांचभौतिक जगत का उपादान कारण बताते हैं । यही कारण है कि आत्मा कूटस्थ और
निरंजन होने पर भी इस प्रकृति में संगत हो गया है । वह अपने को प्रकृति से अभिन्न मानने
लगा है । मैं बस्तुतः अविनाशी ब्रह्म हूँ , ऐसा अपने को नहीं समझता । अतः अनात्म
पदार्थ में आत्मबुद्धि करने से ही दुख और सुख होते हैं ।
राग-द्वेष आदि सारे दोष भ्रम के ही कारण इस जीव
को कर्तव्य-कर्म में पुण्य और पाप की भावना होती है । ऐसा श्रुति का कथन है । उसी
भावना के वशीभूत होकर वह वैसे कर्मों में प्रवृत्त होता है और उन कर्मों के ही फल
भोगने के लिए संपूर्ण देहधारियों के समस्त शरीरों की उत्पत्ति होती है । वस्तुतः
आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, कूटस्थ, दोषरहित तथा अद्वितीय है । वह मायाशक्ति से ही
भेद या नानात्व को प्राप्त होता है , स्वरूप से नहीं । इसलिए ऋषि-मुनियों ने
अद्वैत को ही पारमार्थिक सिद्धांत बताया है । भेद अव्यक्त स्वभाव से होता है । वह
अव्यक्त स्वभाव आत्मा के आश्रित रहनेवाली माया ही है ।
जैसे धूम के संपर्क से आकाश मलिन नहीं होता है,
उसी प्रकार अन्तः करण में उत्पन्न होने वाले रागादि दोषों से आत्मा लिप्त नहीं
होता । जैसे विशुद्ध स्फटिक-शिला अपनी प्रभा से सदा एक-सी प्रकाशित होती है, उसी
प्रकार उपाधि रहित आत्मा सदा निर्मल रूप से प्रकाशित होता है । विद्वान पुरुष इस जगत
को ज्ञान स्वरूप ही बताते हैं, किन्तु दूसरे कुत्सित बुद्धिवाले अज्ञानी लोग इसे
अर्थ स्वरूप अर्थात नाना पदार्थ रूप देखते हैं । जो कूटस्थ निर्गुण व्यापक तथा
स्वभावतः चैतन्य स्वरूप है, वही परमात्मा भ्रांत दृष्टिवाले पुरुषों को भौतिक
पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर होता है । जैसे विशुद्ध स्फटिक रक्तिका के व्यवधान
से लोगों को लाल रंग का दिखाई देता है । उसी तरह परम पुरुष परमात्मा माया के व्यवधान
से प्रपंचमय देखने लगता है । इसलिए मुमुक्ष पुरुषों को चाहिए कि वे आत्मा को
अविनाशी, शुद्ध, नित्य, सर्वव्यापी एवं निर्विकार मानकर उसी रूप में उसका श्रवण,
मनन एवं निदिध्यासन करें ।
।।
जयश्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमान जी ।।
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