राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Tuesday, April 23, 2024

श्रीहनुमान जयंती विशेष- बाँके कपि केसरी अंजना के लाल हो

आज अर्थात चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमानजी महाराज की जयंती है । वैसे ग्रंथों के अनुसार हनुमान जी की जयंती कल्प भेद से एक वर्ष में कई बार आती है  श्रीबाल्मीकि रामायण के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को भी यानी दीपावली से एक दिन पहले हनुमानजी महाराज की जयंती आती है । इनके अलावा और भी तिथियाँ हैं लेकिन इन दोनों तिथियों को हनुमानजी की जयंती विशेष रूप से मनाई जाती है  


।। श्रीहनुमते नमः ।।


बाँके कपि केसरी अंजना के लाल हो ।

रामकथा मानस के रसिक मराल हो ।।१।। बाँके कपि.।।

 

चहुँजुग तिहुँपुर तीनहुँ काल हो ।

गुनगन उजियारे विरद विशाल हो ।।२।। बाँके कपि.।।

 

बालकेलि सुधि कर दिनकर बाल हो ।

डरपत मुख लीन्हेउ एक उछाल हो ।।३।। बाँके कपि.।।

 

जलधि को लाँघि गयो मुदरि धरि गाल हो ।

प्रभु पहिं आयो लेके सीताजी को हाल हो ।।४।। बाँके कपि.।।

 

रामदूत राम जन करत निहाल हो ।

खल-बल तोड़नहारे काल को कराल हो ।।५।। बाँके कपि.।।

 

सुजन को सौम्य बड़े सेवकपाल हो ।

दुर्जन को महावीर बड़ो विकराल हो ।।६।। बाँके कपि.।।

 

दानव दैत्य भूत प्रेत आदि बेताल हो ।

तेरो नाम सुनि होत सकल बेहाल हो ।।७।। बाँके कपि.।।

 

रोग दोष दुख घेरे लेत निकाल हो ।

तुम बिनु कौन तोड़े जग दुख जाल हो ।।८।। बाँके कपि.।।


दीन संतोष देखो दीन को दयाल हो ।

मोसे दीन दूबरे को सहज कृपाल हो ।।९।। बाँके कपि.।।

 

सबबिधि दीन हीन बड़ो कलिकाल हो ।

सीताराम स्वामी और तुहीं प्रतिपाल हो ।।१०।। बाँके कपि.।।

 

।। जय महावीर हनुमानजी की ।।

Thursday, April 11, 2024

श्रीराम गीता : हनुमानजी को सांख्ययोग के उपदेश का अंतिम भाग -सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः

  

हनुमन ! यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति  परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया है । 

    

एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः

कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।


संपूर्ण कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-


सर्वकामः सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।

सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।

 

मेरे हाथ और पैर नहीं हैं तो भी मैं सब कुछ ग्रहण करता हूँ और वेग से चलता हूँ  । मैं ही सबके ह्रदय में आत्मा रूप से विराजमान हूँ । मैं आँख न होने पर भी देखता और कान के बिना भी सुनता हूँ । मैं इस संपूर्ण जगत को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।

 

 तत्वदर्शी पुरुष मुझे एकमात्र महान पुरुष परमात्मा कहते हैं । मेरा स्वरूप निर्गुण और निर्मल है उसका जो परमोत्तम ऐश्वर्य है, उसे देवता भी नहीं जानते । क्योंकि वे भी मेरी माया से मोहित हैं । मेरा जो गुह्यतम सर्वव्यापी तथा अविनाशी, चिन्मय स्वरूप है । उसमें प्रविष्ट होकर तत्वदर्शी योगी मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेते हैं ।


जिन लोगों को विश्वरूपिणी माया ने आक्रांत नहीं किया है वे मेरे साथ एकीभूत होकर परम शुद्ध निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । सौ करोड़ा कल्पों में भी वे इस संसार में नहीं आते ।


वत्स मेरी कृपा से तुम्हें यह वेद का उपदेश प्राप्त हुआ है । हनुमन ! जो पुत्र, शिष्य अथवा योगी न हो ऐसे लोगों को कभी इस ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिए । यह विज्ञान जिसे तुम्हें बताया गया है सांख्ययोग से सम्बद्ध है ।


हनुमान जी को सांख्ययोग का उपदेश भाग -४

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान ।।

Tuesday, April 2, 2024

हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग- ४

      ज्ञानस्वरूप परमात्मा में चित्त का एकीभाव से लग जाना योग कहलाता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग । जो ज्ञान और योग दोनों से सम्पन्न हैं उसके लिए कहीं कुछ भी प्राप्तब्य नहीं है । 


भाग-३ से आगे-

जब साधक के मन में सदा सर्वत्र व्यापक चैतन्य का बिना किसी व्यवधान के प्रकाश हो जाय, तब वह स्वयं परमात्म स्वरूप हो जाता है । जब ज्ञानी पुरुष संपूर्ण भूतों को अपने आत्मा में ही देखने लगता है तथा संपूर्ण भूतों में अपने आत्मा का साक्षात्कार करने लगता है, तब वह स्वयं ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । जब विद्वान पुरुष संपूर्ण भूतों का अपने आत्मा में  ही दर्शन करता है, तब वह परमात्मा से एकीभूत होकर कैवल्य-अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

 

  जब साधक के ह्रदय में विद्यमान संपूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं, तब हुए विद्वान अमृतस्वरूप होकर कल्याण को प्राप्त होता है । जब साधक संपूर्ण भूतों के पृथक-भाव को एकमात्र परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । जब वह आत्मा को वस्तुतः एकमात्र-अद्वितीय देखता है और संपूर्ण जगत को माया मात्र मानने लगता है । तब वह परमानंद को प्राप्त होता है । जब जन्म, जरा, दुख एवं व्याधियों की एकमात्र औषधि विशुद्ध ब्रह्म का सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है, तब ज्ञानी पुरुष शिवरूप हो जाता है । जैसे लोक में नदियाँ और नद समुद्र में मिलकर उसके साथ एक हो जाते हैं । उसी प्रकार आत्मा निराकार अविनाशी परमात्मा के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है ।

 

   इसलिए विज्ञान ही परमार्थ सत्य है । न तो जगत की सृष्टि सत्य है और न इसका संहार । लोक में विज्ञान पर अज्ञान का आवरण पड़ा हुआ है । इसलिए लोग मोह में पड़ जाते हैं । वह ज्ञान निर्मल, सूक्ष्म, निर्विकल्प और अविनाशी है । यह सारा प्रपंच जिसे अज्ञान कहा जाता है मेरे मत में विज्ञान रूप ही है । हनुमन! यह मैंने तुमसे परमोत्तम ज्ञान-सांख्य का वर्णन किया है । यही संपूर्ण वेदांत का सार है ।

 

  इस ज्ञानस्वरूप परमात्मा में चित्त का एकीभाव से लग जाना योग कहलाता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग । जो ज्ञान और योग दोनों से सम्पन्न हैं उसके लिए कहीं कुछ भी प्राप्तब्य नहीं है । योगी जिस पद को प्राप्त करते हैं सांख्य ज्ञान से भी उसी पद की प्राप्ति होती है । जो सांख्य और योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही तत्ववेत्ता है । वत्स ! दूसरे योगीजन अणिमा आदि ऐश्वर्यों में आसक्तचित्त होकर उन्हीं-उन्हीं में दूब जाते हैं । आत्मा की एकता का बोध ही वास्तव में प्राप्य परमपद है । ऐसा श्रुति का कथन है । जो सर्वव्यापी दिव्य महान एवं अचल ऐश्वर्य रूप है, उस ब्रह्मपद को ज्ञान योग सम्पन्न पुरुष देहत्याग के पश्चात प्राप्त कर लेता है ।


श्रीराम गीता के अंतर्गत हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-३ 

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय हनुमान ।।       

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