हनुमानजी महाराज किष्किन्धा में रहने लगे । सभी लोग इनकी, प्रतिभा, बुद्धिमत्ता,
इनके ज्ञान विज्ञान से प्रभावित थे । बालि स्वयं हनुमानजी को अपने साथ रखना चाहता
था-अपना सुहृद बनाना चाहता था । लेकिन हनुमान जी सुग्रीव जी के सुहृद बन गए ।
बालि सुग्रीव जी
को मारने के लिए सुग्रीव जी का पीछा कर रहा था और सुग्रीव जी नदी-पर्वत आदि को
लाँघते हुए भाग रहे थे । बालि पीछा छोड़ नहीं रहा था । सुग्रीव जी के समझ में नहीं
आ रहा था कि क्या करें ? कहाँ जाएँ ? समुंद्र पर्यन्त सारी धरती पर भागते रहे लेकिन कहीं ठौर न मिला ।
जब बालि ने दुन्दुभि
राक्षस का वध किया था और उसके मृत शरीर को उठाकर फेंका था तो रक्त की कुछ बूँदे
मतंग मुनि के आश्रम के पास जा गिरी थीं । जिससे कुपित होकर मुनि ने बालि को शाप दे
दिया था कि बालि यदि इस क्षेत्र में प्रवेश करेगा तो उसकी मृत्यु हो जायेगी । यह
सब सुग्रीव जी को पता था । लेकिन इस समस्या के समय उन्हें यह सब याद ही नहीं रह
गया था । और इसलिए वे भागे जा रहे थे ।
हनुमानजी महाराज ने सुग्रीव जी को याद दिलाया कि
इस समय बालि से बचने के लिए सबसे सुरक्षित स्थान मतंग मुनि के शाप के कारण ऋष्यमूक
पर्वत ही है । यह सुनकर सुग्रीव जी ऋष्यमूक पर्वत पर आ गए और बालि लौट गया ।
इस प्रकार हनुमान जी
महाराज के सुझाव पर सुग्रीव जी ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगे । और उनके सुहृद जन उनके
सचिव बनकर उनका मनोबल बढ़ाने लगे । हनुमान जी पर सुग्रीव जी को अधिक विश्वास था और
उनसे ही अधिक आशा थी । निराशा की बड़ी बिकट घड़ी में हनुमानजी सुग्रीव जी के लिए आशा की एक बड़ी किरण बनकर सुग्रीव के
उत्साह और मनोबल को बढ़ाते हुए असरण सरण रघुकुल भूषण भगवान श्रीरामचंद्र जी के एक
दिन स्वयं चलकर आने की बाट जोहने लगे ।
।। जय हनुमान जी ।।
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