राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Tuesday, April 23, 2024

श्रीहनुमान जयंती विशेष- बाँके कपि केसरी अंजना के लाल हो

आज अर्थात चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमानजी महाराज की जयंती है । वैसे ग्रंथों के अनुसार हनुमान जी की जयंती कल्प भेद से एक वर्ष में कई बार आती है  श्रीबाल्मीकि रामायण के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को भी यानी दीपावली से एक दिन पहले हनुमानजी महाराज की जयंती आती है । इनके अलावा और भी तिथियाँ हैं लेकिन इन दोनों तिथियों को हनुमानजी की जयंती विशेष रूप से मनाई जाती है  


।। श्रीहनुमते नमः ।।


बाँके कपि केसरी अंजना के लाल हो ।

रामकथा मानस के रसिक मराल हो ।।१।। बाँके कपि.।।

 

चहुँजुग तिहुँपुर तीनहुँ काल हो ।

गुनगन उजियारे विरद विशाल हो ।।२।। बाँके कपि.।।

 

बालकेलि सुधि कर दिनकर बाल हो ।

डरपत मुख लीन्हेउ एक उछाल हो ।।३।। बाँके कपि.।।

 

जलधि को लाँघि गयो मुदरि धरि गाल हो ।

प्रभु पहिं आयो लेके सीताजी को हाल हो ।।४।। बाँके कपि.।।

 

रामदूत राम जन करत निहाल हो ।

खल-बल तोड़नहारे काल को कराल हो ।।५।। बाँके कपि.।।

 

सुजन को सौम्य बड़े सेवकपाल हो ।

दुर्जन को महावीर बड़ो विकराल हो ।।६।। बाँके कपि.।।

 

दानव दैत्य भूत प्रेत आदि बेताल हो ।

तेरो नाम सुनि होत सकल बेहाल हो ।।७।। बाँके कपि.।।

 

रोग दोष दुख घेरे लेत निकाल हो ।

तुम बिनु कौन तोड़े जग दुख जाल हो ।।८।। बाँके कपि.।।


दीन संतोष देखो दीन को दयाल हो ।

मोसे दीन दूबरे को सहज कृपाल हो ।।९।। बाँके कपि.।।

 

सबबिधि दीन हीन बड़ो कलिकाल हो ।

सीताराम स्वामी और तुहीं प्रतिपाल हो ।।१०।। बाँके कपि.।।

 

।। जय महावीर हनुमानजी की ।।

Thursday, April 11, 2024

श्रीराम गीता : हनुमानजी को सांख्ययोग के उपदेश का अंतिम भाग -सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः

  

हनुमन ! यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति  परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया है । 

    

एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः

कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।


संपूर्ण कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-


सर्वकामः सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।

सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।

 

मेरे हाथ और पैर नहीं हैं तो भी मैं सब कुछ ग्रहण करता हूँ और वेग से चलता हूँ  । मैं ही सबके ह्रदय में आत्मा रूप से विराजमान हूँ । मैं आँख न होने पर भी देखता और कान के बिना भी सुनता हूँ । मैं इस संपूर्ण जगत को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।

 

 तत्वदर्शी पुरुष मुझे एकमात्र महान पुरुष परमात्मा कहते हैं । मेरा स्वरूप निर्गुण और निर्मल है उसका जो परमोत्तम ऐश्वर्य है, उसे देवता भी नहीं जानते । क्योंकि वे भी मेरी माया से मोहित हैं । मेरा जो गुह्यतम सर्वव्यापी तथा अविनाशी, चिन्मय स्वरूप है । उसमें प्रविष्ट होकर तत्वदर्शी योगी मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेते हैं ।


जिन लोगों को विश्वरूपिणी माया ने आक्रांत नहीं किया है वे मेरे साथ एकीभूत होकर परम शुद्ध निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । सौ करोड़ा कल्पों में भी वे इस संसार में नहीं आते ।


वत्स मेरी कृपा से तुम्हें यह वेद का उपदेश प्राप्त हुआ है । हनुमन ! जो पुत्र, शिष्य अथवा योगी न हो ऐसे लोगों को कभी इस ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिए । यह विज्ञान जिसे तुम्हें बताया गया है सांख्ययोग से सम्बद्ध है ।


हनुमान जी को सांख्ययोग का उपदेश भाग -४

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान ।।

Tuesday, April 2, 2024

हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग- ४

      ज्ञानस्वरूप परमात्मा में चित्त का एकीभाव से लग जाना योग कहलाता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग । जो ज्ञान और योग दोनों से सम्पन्न हैं उसके लिए कहीं कुछ भी प्राप्तब्य नहीं है । 


भाग-३ से आगे-

जब साधक के मन में सदा सर्वत्र व्यापक चैतन्य का बिना किसी व्यवधान के प्रकाश हो जाय, तब वह स्वयं परमात्म स्वरूप हो जाता है । जब ज्ञानी पुरुष संपूर्ण भूतों को अपने आत्मा में ही देखने लगता है तथा संपूर्ण भूतों में अपने आत्मा का साक्षात्कार करने लगता है, तब वह स्वयं ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । जब विद्वान पुरुष संपूर्ण भूतों का अपने आत्मा में  ही दर्शन करता है, तब वह परमात्मा से एकीभूत होकर कैवल्य-अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

 

  जब साधक के ह्रदय में विद्यमान संपूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं, तब हुए विद्वान अमृतस्वरूप होकर कल्याण को प्राप्त होता है । जब साधक संपूर्ण भूतों के पृथक-भाव को एकमात्र परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । जब वह आत्मा को वस्तुतः एकमात्र-अद्वितीय देखता है और संपूर्ण जगत को माया मात्र मानने लगता है । तब वह परमानंद को प्राप्त होता है । जब जन्म, जरा, दुख एवं व्याधियों की एकमात्र औषधि विशुद्ध ब्रह्म का सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है, तब ज्ञानी पुरुष शिवरूप हो जाता है । जैसे लोक में नदियाँ और नद समुद्र में मिलकर उसके साथ एक हो जाते हैं । उसी प्रकार आत्मा निराकार अविनाशी परमात्मा के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है ।

 

   इसलिए विज्ञान ही परमार्थ सत्य है । न तो जगत की सृष्टि सत्य है और न इसका संहार । लोक में विज्ञान पर अज्ञान का आवरण पड़ा हुआ है । इसलिए लोग मोह में पड़ जाते हैं । वह ज्ञान निर्मल, सूक्ष्म, निर्विकल्प और अविनाशी है । यह सारा प्रपंच जिसे अज्ञान कहा जाता है मेरे मत में विज्ञान रूप ही है । हनुमन! यह मैंने तुमसे परमोत्तम ज्ञान-सांख्य का वर्णन किया है । यही संपूर्ण वेदांत का सार है ।

 

  इस ज्ञानस्वरूप परमात्मा में चित्त का एकीभाव से लग जाना योग कहलाता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग । जो ज्ञान और योग दोनों से सम्पन्न हैं उसके लिए कहीं कुछ भी प्राप्तब्य नहीं है । योगी जिस पद को प्राप्त करते हैं सांख्य ज्ञान से भी उसी पद की प्राप्ति होती है । जो सांख्य और योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही तत्ववेत्ता है । वत्स ! दूसरे योगीजन अणिमा आदि ऐश्वर्यों में आसक्तचित्त होकर उन्हीं-उन्हीं में दूब जाते हैं । आत्मा की एकता का बोध ही वास्तव में प्राप्य परमपद है । ऐसा श्रुति का कथन है । जो सर्वव्यापी दिव्य महान एवं अचल ऐश्वर्य रूप है, उस ब्रह्मपद को ज्ञान योग सम्पन्न पुरुष देहत्याग के पश्चात प्राप्त कर लेता है ।


श्रीराम गीता के अंतर्गत हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-३ 

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय हनुमान ।।       

Sunday, March 24, 2024

श्रीराम गीता के अंतर्गत हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-३

 

संपूर्ण कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-

सर्वकामः सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।

सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।

 

भाग-२ से आगे-

मन्त्रद्रष्टा ऋषि निश्चय ही परमात्मा को नित्य एवं सदसत स्वरूप समझते हैं । व्रह्म्वादी महात्मा प्रधान नाम से विख्यात, गुणों की साम्यावस्था रूप प्रकृति को भलीभाँति जानकर उसी को पांचभौतिक जगत का उपादान कारण बताते हैं । यही कारण है कि आत्मा कूटस्थ और निरंजन होने पर भी इस प्रकृति में संगत हो गया है । वह अपने को प्रकृति से अभिन्न मानने लगा है । मैं बस्तुतः अविनाशी ब्रह्म हूँ , ऐसा अपने को नहीं समझता । अतः अनात्म पदार्थ में आत्मबुद्धि करने से ही दुख और सुख होते हैं ।

 

  राग-द्वेष आदि सारे दोष भ्रम के ही कारण इस जीव को कर्तव्य-कर्म में पुण्य और पाप की भावना होती है । ऐसा श्रुति का कथन है । उसी भावना के वशीभूत होकर वह वैसे कर्मों में प्रवृत्त होता है और उन कर्मों के ही फल भोगने के लिए संपूर्ण देहधारियों के समस्त शरीरों की उत्पत्ति होती है । वस्तुतः आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, कूटस्थ, दोषरहित तथा अद्वितीय है । वह मायाशक्ति से ही भेद या नानात्व को प्राप्त होता है , स्वरूप से नहीं । इसलिए ऋषि-मुनियों ने अद्वैत को ही पारमार्थिक सिद्धांत बताया है । भेद अव्यक्त स्वभाव से होता है । वह अव्यक्त स्वभाव आत्मा के आश्रित रहनेवाली माया ही है ।

 

  जैसे धूम के संपर्क से आकाश मलिन नहीं होता है, उसी प्रकार अन्तः करण में उत्पन्न होने वाले रागादि दोषों से आत्मा लिप्त नहीं होता । जैसे विशुद्ध स्फटिक-शिला अपनी प्रभा से सदा एक-सी प्रकाशित होती है, उसी प्रकार उपाधि रहित आत्मा सदा निर्मल रूप से प्रकाशित होता है । विद्वान पुरुष इस जगत को ज्ञान स्वरूप ही बताते हैं, किन्तु दूसरे कुत्सित बुद्धिवाले अज्ञानी लोग इसे अर्थ स्वरूप अर्थात नाना पदार्थ रूप देखते हैं । जो कूटस्थ निर्गुण व्यापक तथा स्वभावतः चैतन्य स्वरूप है, वही परमात्मा भ्रांत दृष्टिवाले पुरुषों को भौतिक पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर होता है । जैसे विशुद्ध स्फटिक रक्तिका के व्यवधान से लोगों को लाल रंग का दिखाई देता है । उसी तरह परम पुरुष परमात्मा माया के व्यवधान से प्रपंचमय देखने लगता है । इसलिए मुमुक्ष पुरुषों को चाहिए कि वे आत्मा को अविनाशी, शुद्ध, नित्य, सर्वव्यापी एवं निर्विकार मानकर उसी रूप में उसका श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करें ।

रामजी का हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-२ 


।। जयश्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान जी ।।

Saturday, March 16, 2024

रामजी का हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-२

 

हनुमन ! यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति  परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया है ।     

 

एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः

      कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।

 

भाग एक से आगे-  

रामजी हनुमानजी से कहते हैं कि वह अंतर्यामी आत्मा ही सबके शरीर के भीतर शयन करने के कारण पुरुष कहलाता है । वही प्राण और वही महेश्वर है । प्रलयकालिक संवर्तक अग्नि भी वही है । उसीको अव्यक्त कहते हैं । श्रुति ही उस परमात्मा का तत्काल ज्ञान कराती है । उसी से इस संसार की उत्पत्ति होती है तथा उसी में संपूर्ण विश्व का लय होता है । वह मायापति परमात्मा अपने को माया से आवृत करके नाना प्रकार के शरीरों की रचना करता है । वह प्रभु न तो स्वयं संसार-बंधन में पड़ता है और न किसी और को ही संसार चक्र में डालता है ।

 

    कपिश्रेष्ठ वह परमात्मा न तो पृथ्वी है न जल है, न तेज है न वायु है और न आकाश ही है । वह निश्चय ही न तो प्राण है न मन है, न शब्द है न स्पर्श है, न रूप, रस, गंध, अंहकर्ता तथा वाक् ही है । उसके हाथ, पैर, पायु और उपस्थ आदि कुछ भी नहीं है ।

 

 वह न कर्ता है न भोक्ता, न प्रकृति है न पुरुष, न माया है न प्राण । वास्तव में वह चैतन्य मात्र है । जैसे प्रकाश और अंधकार में सम्बंध नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस विश्वप्रपंच तथा परमात्मा में कोई सम्बंध नहीं है । जैसे लोक में वृक्ष और उसकी छाया एक दूसरे से विलक्षण हैं, उसी तरह प्रपंच और परमात्मा वस्तुतः परसपर भिन्न-भिन्न हैं ।

  यदि आत्मा स्वभावतः मलिन, अस्वस्थ और विकारवान हो तो सौ जन्मों में भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । मुक्त मुनिजन अपने आत्मा को वास्तव में निर्विकार, दुखरहित, आनंदस्वरूप और अविनाशी देखते हैं ।

 

मैं कर्ता, सुखी, दुखी, दुर्बल, और स्थूल हूँ, इस तरह की बुद्धि का अहंकार के सम्बंध से लोग आत्मा में आरोप कर लेते हैं ।  वेदों के विद्वान आत्मतत्व को जानकर यह बताते हैं कि आत्मा प्रकृति से परे, सबका साक्षी, भोक्ता, अविनाशी तथा सर्वत्र व्यापक है

 

इससे यह सिद्ध होता है कि समस्त देहधारियों का यह संसार-बंधन अज्ञानमूलक है । अज्ञान से विपरीत ज्ञान होता है । और वह प्रकृति के सम्बंध से प्राप्त है । परम पुरुष परमात्मा नित्य उदित, स्वयंप्रकाश और सर्वव्यापी हैं । अहंकार का आश्रय ले प्रकृति से अपने पार्थक्य का विवेक भुला देने के कारण देहधारी जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानने लगता है ।


भगवान श्रीराम का हनुमानजी को विराट रूप दिखाना और सांख्ययोग का उपदेश -१

। जय श्रीराम 

। जय श्रीहनुमान 

Friday, March 8, 2024

भगवान श्रीराम का हनुमानजी को विराट रूप दिखाना और सांख्ययोग का उपदेश -१

  

हनुमान जी ने राम जी से पूछा कि आप कौन हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में रामजी ने अपना विराट स्वरूप प्रगट कर दिया । हनुमानजी ने भगवान के  विराट स्वरूप का दर्शन करके चकित होकर फिर से पूछा कि प्रभु आप कौन हैं ’ ?

 

   जब चकित होकर हनुमानजी ने फिर से पूछा कि प्रभु आप कौन हैंतो राम जी ने जो परिचय दिया वह बहुत ही उत्तम है । यह उपदेश श्रीराम गीता है । और बहुत गोपनीय है । भगवान श्रीराम अपने निर्गुण-सगुण, उभयात्मक, सर्वेश्वर स्वरूप का परिचय देते हुए बोले-


   विराट रूप तब राम देखावा । देखत मन विस्मय अति छावा ।।

    पुरुष पुराण राम रघुनायक । परमोदार सकल जग नायक ।।

    मधुर बचन बोलेउ रघुराया । सुनत नसाहिं मोह मद माया ।।

  वत्स वत्स कह कृपानिधाना । मोर भगत तुम कपि हनुमाना ।।

  पूछेहुँ मोहि सोउ कहउँ बुझाई । सावधान सुनु मन मति लाई ।।

 निर्गुण सगुण उभयात्मक रूपा । कहन लगे प्रभु आप सरूपा ।।

 सर्वात्मक सर्वेश्वर रामा । सर्वशासक परात्पर परधामा ।।

  सनातन गोप्य आत्म विज्ञाना । सब सन नहिं येहि केरि बखाना ।।

द्विजवर देव जतन नित करहीं । समुचित ज्ञान तदपि नहिं लहहीं ।।

आश्रय लहि यह ज्ञान सुजाना । व्रह्मभूत भए भूसुर नाना ।।

प्रथम भए व्रह्मवादी  नाना । मिथ्या यह संसार बखाना ।।

गोपनीय ते गोप्य सुहाई । गोप्य रखय यह जतन बनाई ।।

जो यह ज्ञान धरे मन लाई । भक्तिमान ते लोग कहाई ।।

तेहि कुल होहिं पुरुष व्रह्मवादी । स्वछ शांति अरु सूक्ष्म अनादी ।।

आत्मा तम अज्ञान न जामी   । चिन्मय केवल अंतरयामी 

 

  पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से कहा वत्स, वत्स हनुमान तुम मेरे भक्त हो ।  तुमने मुझसे जो पूछा है वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ । सावधान होकर सुनो । 


  आत्मा के स्वरूप का निरूपण करते हुए भगवान श्रीराम कहते हैं कि यह आत्मा का गोपनीय विज्ञान  सनातन है । इस ज्ञान को सबके सामने नहीं कहना चाहिए । देवता और श्रेष्ठ द्विज सदा यत्न करते रहने पर भी इस ज्ञान को ठीक-ठीक नहीं जान पाते हैं । इस ज्ञान का आश्रय लेकर बहुत से व्राह्मण व्रह्मभूत हो गए हैं । पहले के व्रह्म्वादी महापुरुष भी संसार को सत्य रूप में नहीं देखते थे । यह ज्ञान गोपनीय से भी अत्यंत गोपनीय है । इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए 


  जो इस ज्ञान को धारण करते हैं वे भक्तिमान हैं । ऐसे भक्तिमान पुरुषों के कुल में व्रह्म्वादी पुरुष जन्म ग्रहण करते हैं । आत्मा अद्वितीय, स्वच्छ, शन्ति, सूक्ष्म एवं सनातन है । आत्मा सबका अन्तर्यामी साक्षात चिन्मय तथा अज्ञान रुपी अंधकार से परे है 

 

। जय श्री हनुमानजी की 

Tuesday, February 27, 2024

हनुमानजी का भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जी के पास जाना और प्रश्न करना

 

सुग्रीवजी के भेजने पर हनुमानजी महाराज विप्र का भेष बनाकर भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जी के पास गए जो सुग्रीव जी से मिलने के लिए ऋष्यमूक पर्वत की ओर आ रहे थे । हनुमानजी थे तो विप्र भेष में लेकिन रामजी और लक्ष्मणजी के अतुलित तेज और अनुपम रूप सौंदर्य को देखकर उन्हें प्रणाम करके पूछने लगे कि श्याम और गौर शरीर वाले आप लोग क्षत्रिय रूप में बन में फिर रहे हैं । हे वीर आप लोग कौन हैं ? यहाँ की भूमि बहुत कठोर है और आप अपने कोमल पदों से इस पर चल रहे हैं । हे स्वामी किस कारण से आप लोग वन में विचरण कर रहे हैं ।

 

  आप लोगों की शरीर मन को हरने वाली, कोमल और सुंदर है । इस पर आप वन के कठिनता से सहे जाने वाली धूप और वायु को सह रहे हैं । क्या आप त्रिदेवों में से कोई हैं । अथवा आप दोनों नर और नारायण हैं ।

 

  हनुमान जी महाराज ने कहा कि क्या आप इस व्रह्मांड के मूल कारण, और जीवों को संसार रुपी सागर से पार उतारने वाले और पृथ्वी का भार नष्ट करने वाले सभी लोकों के स्वामी साक्षात भगवान ही मनुष्य रूप में अवतार ले लिया है । अर्थात वास्तव में आप कौन हैं ?

 

जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार

की तुम्ह अखि भुवन ति लीन्ह मनुज अवतार ।।

 

।। रामदूत हनुमानजी की जय ।।

Tuesday, January 16, 2024

भगवान श्रीराम और लक्ष्मणजी को देखकर सुग्रीव का शंकित होकर हनुमानजी को भेद जानने के लिए भेजना

 

भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ सीता जी की खोज करते हुए सर, सरिता, गिर आदि को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे । आगे चलने पर दोनों भाई ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुँच गए-

   आगे चले बहुरि रघुराया । ऋष्यमूक पर्वत नियराया ।।

 

 इसी ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव जी अपने सचिवों के साथ रहते थे । मतंग मुनि के शाप के कारण बालि ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं आ सकता था । फिर भी सुग्रीव जी भयभीत रहते थे । क्योंकि बालि अपने शत्रुओं का पीछा छोड़ता नहीं था । इसलिए सुग्रीव जी को इस बात की चिंता रहती थी कि भले ही बालि स्वयं यहाँ नहीं आ सकता लेकिन किसी दूसरे को भेज कर वध करा सकता है ।

 

  रामजी और लक्ष्मण जी भले ही तपस्वी वेश में थे । लेकिन उनके शरीर से, उनके तेज से  वीरता झलकती थी । और वे धनुष वाण भी धारण किए हुए थे । इसलिए उनको देखकर सुग्रीव के मन में शंका हो गई कि हो न हो ये बालि के भेजे हुए हों । क्योंकि ये वीर भी हैं, इनके धनुष और वाण भी है और ये इसी ओर आ रहे हैं ।

 

   रामजी और लक्ष्मण जी के रूप, तेज और प्रभाव से सुग्रीव जी चकित होकर सोच रहे थे कि इनको युद्ध में जीता नहीं जा सकता है । इसलिए इनका भेद जान लेना चाहिए कि ये कौन हैं, कहाँ से आएँ हैं और इनके यहाँ आने का प्रयोजन क्या है ? यदि ये सही में बालि के द्वारा भेजे हुए हों तो यहाँ से भाग जाना ही उचित है ।

 

 हनुमान जी महाराज धीर, वीर, और बड़े बुद्धिमान हैं । और सुग्रीव जी के विश्वसनीय और प्रिय हैं । इसलिए सुग्रीव जी ने हनुमान जी को रामजी और लक्ष्मण जी का भेद जानने के लिए कहा । और सुग्रीव की शंका तथा उन्हें भयभीत देखकर हनुमानजी रामजी और लक्ष्मण जी का भेद जानने के लिए चल दिए-

   

सिया को खोजत राम लखन जब ऋष्यमूक पर्वत नियराए

देखत बलबीरा दोउ रनधीरा कपि सुग्रीव बहुत घबराए ।।

आवत केहि काजा दो नरराजा सोचत चित कहुँ थित नहि पाए ।

सुनु हनुमाना अति मतिवाना दोउ वर बीर कहाँ ते आए  ।।

देखो तुम जाई कहौ बुझाई, भागौं जो ये बालि पठाए ।

सबको जानैं को नहिं जानै तेहिं जानन चले आप दुराए ।।

 

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

   

Tuesday, January 2, 2024

हनुमानजी का सुग्रीवजी को ऋष्यमूक पर्वत पर बसने का सुझाव देना

 

हनुमानजी महाराज किष्किन्धा में रहने लगे । सभी लोग इनकी, प्रतिभा, बुद्धिमत्ता, इनके ज्ञान विज्ञान से प्रभावित थे । बालि स्वयं हनुमानजी को अपने साथ रखना चाहता था-अपना सुहृद बनाना चाहता था । लेकिन हनुमान जी सुग्रीव जी के सुहृद बन गए ।

  बालि सुग्रीव जी को मारने के लिए सुग्रीव जी का पीछा कर रहा था और सुग्रीव जी नदी-पर्वत आदि को लाँघते हुए भाग रहे थे । बालि पीछा छोड़ नहीं रहा था । सुग्रीव जी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें ? कहाँ जाएँ ? समुंद्र पर्यन्त सारी धरती पर  भागते रहे लेकिन कहीं ठौर न मिला ।

 

  जब बालि ने दुन्दुभि राक्षस का वध किया था और उसके मृत शरीर को उठाकर फेंका था तो रक्त की कुछ बूँदे मतंग मुनि के आश्रम के पास जा गिरी थीं । जिससे कुपित होकर मुनि ने बालि को शाप दे दिया था कि बालि यदि इस क्षेत्र में प्रवेश करेगा तो उसकी मृत्यु हो जायेगी । यह सब सुग्रीव जी को पता था । लेकिन इस समस्या के समय उन्हें यह सब याद ही नहीं रह गया था । और इसलिए वे भागे जा रहे थे ।

 

   हनुमानजी महाराज ने सुग्रीव जी को याद दिलाया कि इस समय बालि से बचने के लिए सबसे सुरक्षित स्थान मतंग मुनि के शाप के कारण ऋष्यमूक पर्वत ही है । यह सुनकर सुग्रीव जी ऋष्यमूक पर्वत पर आ गए और बालि लौट गया ।

 

  इस प्रकार हनुमान जी महाराज के सुझाव पर सुग्रीव जी ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगे । और उनके सुहृद जन उनके सचिव बनकर उनका मनोबल बढ़ाने लगे । हनुमान जी पर सुग्रीव जी को अधिक विश्वास था और उनसे ही अधिक आशा थी ।  निराशा की बड़ी बिकट घड़ी में हनुमानजी सुग्रीव जी के लिए आशा की एक बड़ी किरण बनकर सुग्रीव के उत्साह और मनोबल को बढ़ाते हुए असरण सरण रघुकुल भूषण भगवान श्रीरामचंद्र जी के एक दिन स्वयं चलकर आने की बाट जोहने लगे ।

 


।। जय हनुमान जी ।।

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