राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Thursday, April 11, 2024

श्रीराम गीता : हनुमानजी को सांख्ययोग के उपदेश का अंतिम भाग -सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः

  

हनुमन ! यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति  परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया है । 

    

एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः

कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।


संपूर्ण कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-


सर्वकामः सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।

सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।

 

मेरे हाथ और पैर नहीं हैं तो भी मैं सब कुछ ग्रहण करता हूँ और वेग से चलता हूँ  । मैं ही सबके ह्रदय में आत्मा रूप से विराजमान हूँ । मैं आँख न होने पर भी देखता और कान के बिना भी सुनता हूँ । मैं इस संपूर्ण जगत को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।

 

 तत्वदर्शी पुरुष मुझे एकमात्र महान पुरुष परमात्मा कहते हैं । मेरा स्वरूप निर्गुण और निर्मल है उसका जो परमोत्तम ऐश्वर्य है, उसे देवता भी नहीं जानते । क्योंकि वे भी मेरी माया से मोहित हैं । मेरा जो गुह्यतम सर्वव्यापी तथा अविनाशी, चिन्मय स्वरूप है । उसमें प्रविष्ट होकर तत्वदर्शी योगी मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेते हैं ।


जिन लोगों को विश्वरूपिणी माया ने आक्रांत नहीं किया है वे मेरे साथ एकीभूत होकर परम शुद्ध निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । सौ करोड़ा कल्पों में भी वे इस संसार में नहीं आते ।


वत्स मेरी कृपा से तुम्हें यह वेद का उपदेश प्राप्त हुआ है । हनुमन ! जो पुत्र, शिष्य अथवा योगी न हो ऐसे लोगों को कभी इस ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिए । यह विज्ञान जिसे तुम्हें बताया गया है सांख्ययोग से सम्बद्ध है ।


हनुमान जी को सांख्ययोग का उपदेश भाग -४

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान ।।

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