( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )
हनुमन ! यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया है ।
एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः ।
कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।
संपूर्ण
कामनाएँ, संपूर्ण रस तथा संपूर्ण गंध मैं ही हूँ । जरा और मृत्यु मुझे छू नहीं
सकते । मेरे सब ओर हाथ और पैर हैं । मैं ही सनातन अन्तर्यामी परमात्मा हूँ-
सर्वकामः
सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोऽमरः ।
सर्वतः
पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ।।
मेरे हाथ और पैर नहीं हैं तो भी मैं सब कुछ ग्रहण करता हूँ और
वेग से चलता हूँ । मैं ही सबके ह्रदय में
आत्मा रूप से विराजमान हूँ । मैं आँख न होने पर भी देखता और कान के बिना भी सुनता
हूँ । मैं इस संपूर्ण जगत को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।
तत्वदर्शी पुरुष मुझे
एकमात्र महान पुरुष परमात्मा कहते हैं । मेरा स्वरूप निर्गुण और निर्मल है उसका जो
परमोत्तम ऐश्वर्य है, उसे देवता भी नहीं जानते । क्योंकि वे भी मेरी माया से मोहित
हैं । मेरा जो गुह्यतम सर्वव्यापी तथा अविनाशी, चिन्मय स्वरूप है । उसमें प्रविष्ट
होकर तत्वदर्शी योगी मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेते हैं ।
जिन लोगों को विश्वरूपिणी माया ने आक्रांत नहीं किया है वे
मेरे साथ एकीभूत होकर परम शुद्ध निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । सौ करोड़ा कल्पों
में भी वे इस संसार में नहीं आते ।
वत्स मेरी कृपा से तुम्हें यह वेद का उपदेश प्राप्त हुआ है ।
हनुमन ! जो पुत्र, शिष्य अथवा योगी न हो ऐसे लोगों को कभी इस ज्ञान का उपदेश नहीं
देना चाहिए । यह विज्ञान जिसे तुम्हें बताया गया है सांख्ययोग से सम्बद्ध है ।
हनुमान जी को सांख्ययोग का उपदेश भाग -४
।। जय श्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमान ।।
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