।। श्रीहनुमते नमः ।।
वानर राज केसरी और अंजना जी के कोई संतान
नहीं थी । अंजना
जी पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही थीं । इधर अयोध्या के परम प्रतापी राजा
महाराज दशरथ पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करा रहे थे । यज्ञ सकुशल
सम्पन्न हुआ और अग्नि देव खीर का प्रसाद लेकर प्रगट हुए ।
खीर का जो भाग कैकेयी जी को मिला उसे अचानक एक चील नामक पक्षी
दोने सहित अपने पैरों के माध्यम से पकड़कर आकाश में उड़ गया । उड़ते-उड़ते वह उस स्थान
पर पहुँच गया जहाँ अंजना जी तपस्या कर रही थीं । इतने में अचानक पवन का झोका आया
और खीर का दोना चील पक्षी की पकड़ से छूट गया । उस दोने को पवन देव ने अंजना जी के
हाथ में पहुँचा दिया ।
इसे पवन देवता का प्रसाद समझकर अंजना जी ने ग्रहण कर लिया । इस
प्रकार शिव रूप हनुमान जी अंजना जी के गर्भ में आ गए । समय आने पर चैत्र शुक्ल
पूर्णिमा को मंगलवार के दिन अंजना के गर्भ से भगवान शंकर ने वानर रूप में अवतार लिया ।
माता अंजना और कपिराज केसरी के आनंद की सीमा न रही । दशों दिशाओं में आनंद छा गया ।
दुन्दिभियाँ बजने लगी । मंगल गीत गाए जाने लगे ।
एक मत के अनुसार हनुमान जी का जन्म शनिवार को हुआ था, ऐसा भी कहा जाता है । कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को भी हनुमान जी का जन्म मनाया जाता है । कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को भी हनुमान जी का जन्म मनाया जाता है । अलग-अलग तिथियों का कारण कल्प भेद मानना चाहिए । क्योंकि हनुमान जी का जन्म प्रत्येक कल्प में एक बार होता है । कुछ लोग कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ज्यादा प्रमाणिक बताते हैं ।
इस प्रकार देवाधिदेव महादेव स्वयं रामजी का सेवक बनने के लिए
और न भूतो न भविष्यति सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए हर से हनुमान बन
गए-
जानि राम सेवा सरस, समुझि करब अनुमान ।
पुरुषा से सेवक भए, हर ते भे हनुमान ।।
।। वानर रूप में पुरारी की जय ।।
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