( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )
ज्ञानस्वरूप परमात्मा में चित्त का एकीभाव से लग जाना योग कहलाता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग । जो ज्ञान और योग दोनों से सम्पन्न हैं उसके लिए कहीं कुछ भी प्राप्तब्य नहीं है ।
भाग-३ से आगे-
जब साधक के मन में सदा सर्वत्र व्यापक चैतन्य का बिना किसी
व्यवधान के प्रकाश हो जाय, तब वह स्वयं परमात्म स्वरूप हो जाता है । जब ज्ञानी
पुरुष संपूर्ण भूतों को अपने आत्मा में ही देखने लगता है तथा संपूर्ण भूतों में
अपने आत्मा का साक्षात्कार करने लगता है, तब वह स्वयं ब्रह्मभाव को प्राप्त हो
जाता है । जब विद्वान पुरुष संपूर्ण भूतों का अपने आत्मा में ही दर्शन करता है, तब वह परमात्मा से एकीभूत
होकर कैवल्य-अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।
जब साधक के ह्रदय में
विद्यमान संपूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं, तब हुए विद्वान अमृतस्वरूप होकर कल्याण को
प्राप्त होता है । जब साधक संपूर्ण भूतों के पृथक-भाव को एकमात्र परमात्मा के
संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों
का विस्तार देखता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । जब वह आत्मा को
वस्तुतः एकमात्र-अद्वितीय देखता है और संपूर्ण जगत को माया मात्र मानने लगता है ।
तब वह परमानंद को प्राप्त होता है । जब जन्म, जरा, दुख एवं व्याधियों की एकमात्र
औषधि विशुद्ध ब्रह्म का सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है, तब ज्ञानी पुरुष शिवरूप हो
जाता है । जैसे लोक में नदियाँ और नद समुद्र में मिलकर उसके साथ एक हो जाते हैं ।
उसी प्रकार आत्मा निराकार अविनाशी परमात्मा के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है ।
इसलिए विज्ञान ही
परमार्थ सत्य है । न तो जगत की सृष्टि सत्य है और न इसका संहार । लोक में विज्ञान
पर अज्ञान का आवरण पड़ा हुआ है । इसलिए लोग मोह में पड़ जाते हैं । वह ज्ञान निर्मल,
सूक्ष्म, निर्विकल्प और अविनाशी है । यह सारा प्रपंच जिसे अज्ञान कहा जाता है मेरे
मत में विज्ञान रूप ही है । हनुमन! यह मैंने तुमसे परमोत्तम ज्ञान-सांख्य का वर्णन
किया है । यही संपूर्ण वेदांत का सार है ।
इस ज्ञानस्वरूप परमात्मा में चित्त का एकीभाव से लग जाना योग कहलाता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से योग । जो ज्ञान और योग दोनों से सम्पन्न हैं उसके लिए कहीं कुछ भी प्राप्तब्य नहीं है । योगी जिस पद को प्राप्त करते हैं सांख्य ज्ञान से भी उसी पद की प्राप्ति होती है । जो सांख्य और योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही तत्ववेत्ता है । वत्स ! दूसरे योगीजन अणिमा आदि ऐश्वर्यों में आसक्तचित्त होकर उन्हीं-उन्हीं में दूब जाते हैं । आत्मा की एकता का बोध ही वास्तव में प्राप्य परमपद है । ऐसा श्रुति का कथन है । जो सर्वव्यापी दिव्य महान एवं अचल ऐश्वर्य रूप है, उस ब्रह्मपद को ज्ञान योग सम्पन्न पुरुष देहत्याग के पश्चात प्राप्त कर लेता है ।
श्रीराम गीता के अंतर्गत हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-३
।। जय श्रीराम ।।
।। जय हनुमान ।।
No comments:
Post a Comment