।। श्रीहनुमते नमः ।।
जैसे भगवान कहते हैं कि मेरा जन्म और कर्म दोनों दिव्य होता है
। अर्थात भगवान का जन्म और उनका कर्म-चरित्र साधरण नहीं होता । इसी तरह से हनुमान
जी का जन्म भी साधारण नहीं था । परम दिव्य था ।
भगवान श्रीराम के
भुवन विमोहनि महाछवि निहारते रहने के लिए और भगवान श्रीराम के चरणों की अनुपम सेवा
करने के लिए शंकर जी ने विचार किया और वानर के रूप में माता अंजना के गर्भ से
प्रगट हुए और अपने जीवन को धन्य किया -
सेवक बनि सेवा करि रहिहौं निज मन शंभु
विचार किए ।
अंजना सुवन केसरीनंदन पवनतनय बनि आइ गए ।।१।।
राम से नेह निभावन कारन वानर बनि शिव आइ जए ।
राम को काज सवाँरन कारन शिवशंकर
हनुमान भए ।
राम को वदन निहारत हनुमद राम चरण अनुराग लिए ।
सेवक अस न तिहूँपुर कोई काल तीन
अनुमान किए ।
राम चरित अरु राम नाम रूचि राम प्रेम जनु देंह लिए ।
दीन संतोष सुर नर मुनि स्वामी हनुमद पाइ निहाल भए ।।४।।
हनुमान जी जब प्रगट
हुए उस समय वन, उपवन, वाग, वाटिकाओं में सुंदर-सुंदर पुष्प खिल उठे । वायु मंद गति से
चलने लगी । सूर्य देव की किरणें अधिक ताप लिए हुए नहीं थीं अर्थात शीतल और सुखद
थीं । प्रकृति रम्यता लिए हुए थी । दिशाएं प्रसन्न थीं । झरने झर रहे थे और नदियों
में शीतल जल प्रवाहित हो रहा था ।
हनुमानजी का सौंदर्य
अतुलनीय और अवर्णनीय था । हनुमान जी के रोम, केश और आँख पिंगल वर्ण की थी । उनके
शरीर की कांति भी पिंगल वर्ण की थी । हनुमानजी के दोनों कानों में बिजली की सी चमक
वाले दो स्वर्ण कुंडल शोभित हो रहे थे । अर्थात हनुमानजी जब प्रगट हुए तो स्वर्ण
कुंडल पहने हुए थे ।
हनुमानजी के मस्तक पर
मणि निर्मित मुकुट था । कौपीन और काछनी पहने हुए थे । वे यज्ञोपवीत धारण किए हुए थे ।
हाथ में वज्र शोभा पा रहा था । उनके कटि प्रदेश में मूँज की मेखला शोभा पा रही थी ।
और वे मंद-मंद मुस्करा रहे थे ।
अपने पुत्र के अलौकिक
रूप-सौंदर्य को देखकर माता अंजना आनंदित हो रही थीं । कपिराज केसरी के आनंद की
सीमा न रही । चारों ओर हर्ष और उल्लास की लहरें दौड़ पड़ीं । इस प्रकार हनुमानजी का
जन्म साधारण नहीं परम दिव्य था ।
।। जय हनुमान जी की ।।
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