राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Monday, July 1, 2024

श्रीराम गीता- भाग आठ -उपनिषद सिद्धांत का निरूपण- तीन

 

( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )

 

प्रकृति में आसक्ति होने से काल के द्वारा वह अविवेक दृढ हुआ है । काल ही प्राणियों की सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजा का संहार करता है । सब लोग काल के वश में हैं । काल किसी के वश में नहीं है । वह सनातन काल सबके भीतर रहकर इस संपूर्ण जगत का नियंत्रण करता है । भगवान काल ही प्राण, सर्वग्य एवं परम पुरुष कहे जाते हैं ।

 

 संपूर्ण इंद्रियों से मन श्रेष्ठ है, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है । मन से परे अहंकार है, अहंकार से परे महततत्व है, महततत्व से परे अव्यक्त है और अव्यक्त से परे पुरुष विराजमान है । पुरुष से परे भगवान प्राण हैं । यह संपूर्ण जगत उन्हीं की रचना है । प्राण से परे व्योम और व्योम से परे अग्निस्वरूप ईश्वर है । वह ईश्वर मैं हूँ ।

 

 मैं ही सर्वत्र व्यापक. शांत और ज्ञान स्वरूप परमेश्वर हूँ । मुझसे श्रेष्ठ कोई स्थावर-जंगम प्राणी नहीं है । जो मुझे जान लेता है वह मुक्त हो जाता है-

 

  सोऽहं सर्वत्रगः शान्तो ज्ञानात्मा परमेश्वरः ।

  नास्ति मत्परमं भूतं मां विज्ञाय विमुच्यते ।।

 

संसार में कोई भी स्थावर-जंगम भूत नित्य नहीं है । एकमात्र मुझ अव्यक्त परमाकाशस्वरूप महेश्वर को छोड़कर सब कुछ अनित्य है । मैं ही  सदा संपूर्ण विश्व की सृष्टि और संहार करता हूँ । माया का अधिपति मायामय देवता मैं काल से संयुक्त हूँ । यह काल मेरे निकट रहकर ही सारे जगत की सृष्टि करता है । अनंतात्मा काल ही इस विश्व को विभिन्न कार्यों में नियुक्त करता है । यह वेद का उपदेश है ।

 


।। जय श्रीराम ।।

।। जय हनुमान ।।


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