( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )
हनुमन !
यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति
परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया
है ।
एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः ।
कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।
भाग एक
से आगे-
रामजी हनुमानजी से कहते हैं कि वह अंतर्यामी आत्मा ही सबके शरीर के
भीतर शयन करने के कारण पुरुष कहलाता है ।
वही प्राण और वही महेश्वर है । प्रलयकालिक संवर्तक अग्नि भी वही है । उसीको
अव्यक्त कहते हैं । श्रुति ही उस परमात्मा का तत्काल ज्ञान कराती है । उसी से इस
संसार की उत्पत्ति होती है तथा उसी में संपूर्ण विश्व का लय होता है । वह मायापति
परमात्मा अपने को माया से आवृत करके नाना प्रकार के शरीरों की रचना करता है । वह
प्रभु न तो स्वयं संसार-बंधन में पड़ता है और न किसी और को ही संसार चक्र में डालता
है ।
कपिश्रेष्ठ वह परमात्मा न तो पृथ्वी है न जल
है, न तेज है न वायु है और न आकाश ही है । वह निश्चय ही न तो प्राण है न मन है, न
शब्द है न स्पर्श है, न रूप, रस, गंध, अंहकर्ता तथा वाक् ही है । उसके हाथ, पैर,
पायु और उपस्थ आदि कुछ भी नहीं है ।
वह न कर्ता है न भोक्ता, न प्रकृति है न पुरुष,
न माया है न प्राण । वास्तव में वह चैतन्य मात्र है । जैसे प्रकाश और अंधकार में
सम्बंध नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस विश्वप्रपंच तथा परमात्मा में कोई सम्बंध नहीं
है । जैसे लोक में वृक्ष और उसकी छाया एक दूसरे से विलक्षण हैं, उसी तरह प्रपंच और
परमात्मा वस्तुतः परसपर भिन्न-भिन्न हैं ।
यदि आत्मा स्वभावतः मलिन, अस्वस्थ और विकारवान
हो तो सौ जन्मों में भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । मुक्त मुनिजन अपने आत्मा को
वास्तव में निर्विकार, दुखरहित, आनंदस्वरूप और अविनाशी देखते हैं ।
मैं
कर्ता, सुखी, दुखी, दुर्बल, और स्थूल हूँ, इस तरह की बुद्धि का अहंकार के सम्बंध
से लोग आत्मा में आरोप कर लेते हैं । वेदों के विद्वान आत्मतत्व
को जानकर यह बताते हैं कि आत्मा प्रकृति से परे, सबका साक्षी, भोक्ता, अविनाशी तथा
सर्वत्र व्यापक है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि समस्त देहधारियों का यह संसार-बंधन
अज्ञानमूलक है । अज्ञान से विपरीत ज्ञान होता है ।
और वह प्रकृति के सम्बंध से प्राप्त है । परम पुरुष परमात्मा नित्य उदित,
स्वयंप्रकाश और सर्वव्यापी हैं । अहंकार का आश्रय ले प्रकृति से अपने पार्थक्य का
विवेक भुला देने के कारण देहधारी जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानने लगता है ।
भगवान श्रीराम का हनुमानजी को विराट रूप दिखाना और सांख्ययोग का उपदेश -१
।। जय श्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमान ।।
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