राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Saturday, March 16, 2024

श्रीराम गीता -भाग दो- रामजी का हनुमानजी को सांख्ययोग का उपदेश भाग-२

( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश ) 


हनुमन ! यह आत्मा मैं ही हूँ । मैं ही अव्यक्त मायाधिपति  परमेश्वर हूँ । मुझे ही संपूर्ण वेदों में सर्वात्मा और सर्वतोमुख कहा गया है ।     

 

एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः

      कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुखः ।।

 

भाग एक से आगे-  

रामजी हनुमानजी से कहते हैं कि वह अंतर्यामी आत्मा ही सबके शरीर के भीतर शयन करने के कारण पुरुष कहलाता है । वही प्राण और वही महेश्वर है । प्रलयकालिक संवर्तक अग्नि भी वही है । उसीको अव्यक्त कहते हैं । श्रुति ही उस परमात्मा का तत्काल ज्ञान कराती है । उसी से इस संसार की उत्पत्ति होती है तथा उसी में संपूर्ण विश्व का लय होता है । वह मायापति परमात्मा अपने को माया से आवृत करके नाना प्रकार के शरीरों की रचना करता है । वह प्रभु न तो स्वयं संसार-बंधन में पड़ता है और न किसी और को ही संसार चक्र में डालता है ।

 

    कपिश्रेष्ठ वह परमात्मा न तो पृथ्वी है न जल है, न तेज है न वायु है और न आकाश ही है । वह निश्चय ही न तो प्राण है न मन है, न शब्द है न स्पर्श है, न रूप, रस, गंध, अंहकर्ता तथा वाक् ही है । उसके हाथ, पैर, पायु और उपस्थ आदि कुछ भी नहीं है ।

 

 वह न कर्ता है न भोक्ता, न प्रकृति है न पुरुष, न माया है न प्राण । वास्तव में वह चैतन्य मात्र है । जैसे प्रकाश और अंधकार में सम्बंध नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस विश्वप्रपंच तथा परमात्मा में कोई सम्बंध नहीं है । जैसे लोक में वृक्ष और उसकी छाया एक दूसरे से विलक्षण हैं, उसी तरह प्रपंच और परमात्मा वस्तुतः परसपर भिन्न-भिन्न हैं ।

  यदि आत्मा स्वभावतः मलिन, अस्वस्थ और विकारवान हो तो सौ जन्मों में भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । मुक्त मुनिजन अपने आत्मा को वास्तव में निर्विकार, दुखरहित, आनंदस्वरूप और अविनाशी देखते हैं ।

 

मैं कर्ता, सुखी, दुखी, दुर्बल, और स्थूल हूँ, इस तरह की बुद्धि का अहंकार के सम्बंध से लोग आत्मा में आरोप कर लेते हैं ।  वेदों के विद्वान आत्मतत्व को जानकर यह बताते हैं कि आत्मा प्रकृति से परे, सबका साक्षी, भोक्ता, अविनाशी तथा सर्वत्र व्यापक है

 

इससे यह सिद्ध होता है कि समस्त देहधारियों का यह संसार-बंधन अज्ञानमूलक है । अज्ञान से विपरीत ज्ञान होता है । और वह प्रकृति के सम्बंध से प्राप्त है । परम पुरुष परमात्मा नित्य उदित, स्वयंप्रकाश और सर्वव्यापी हैं । अहंकार का आश्रय ले प्रकृति से अपने पार्थक्य का विवेक भुला देने के कारण देहधारी जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानने लगता है ।


भगवान श्रीराम का हनुमानजी को विराट रूप दिखाना और सांख्ययोग का उपदेश -१

। जय श्रीराम 

। जय श्रीहनुमान 

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