भगवान श्रीराम की आज्ञा और आशीर्वाद पाकर हनुमानजी महाराज अगंद जी के
नेतृत्व में दक्षिण दिशा में जाने वाले वानरों और भालुओं के साथ चल दिए । एक वन से
दूसरे वन, नगर, उपवन, गिरि-पर्वत पर अनुसंधान करते हुए अधिक समय बीत गया ।
एक दिन भूँख और प्यास से व्याकुल होकर हनुमानजी को आगे करके देवी
स्वयंप्रभा जहाँ तपस्या कर रही थीं उस दुर्गम गुफा में सब प्रवेश कर गए । उनके
पूछने पर सबने अपना वृतांत सुनाया और उनकी आज्ञा लेकर स्वादिष्ट फल और जल का पान
किया । उस दुर्गम गुफा से बाहर निकलना बड़ा मुश्किल था । देवी ने कहा आप लोग
अपनी-अपनी आँखे मूँद लीजिए मैं आप सबको गुफा से बाहर निकलने में सहायता करूँगी ।
सभी ने अपनी-अपनी आँखे बंद
कर लिया और जब आँखे खोलीं तो सबके सब विशाल समुंद्र के किनारे पहुँच चुके थे ।
देवी वहाँ से किष्किन्धा पर्वत पर भगवान श्रीराम का दर्शन करने चली गईं । भगवान
श्रीराम का दर्शन करके देवी ने बड़ी सुंदर स्तुति किया और आशिर्वाद पाकर बद्रीवन
में तपस्या करने के लिए चली गईं ।
अब श्रीसीताजी की खोज में वानर और भालुओं के लिए समुद्र एक बहुत बड़ी
बाधा बना हुआ था । वानर-भालू बहुत चिंतित थे कि एक महीने की अवधि भी बीत गई और अब
तक सीताजी का कोई समाचार नहीं मिल सका । वानर और भालुओं की आपसी चर्चा को सुनकर
संपाती नामक विशाल गीध अपनी गुफा से बाहर आकर वानरों और भालुओं के विशाल समूह को
देखा और बड़ा प्रसन्न हुआ । और बोला कि जगदीश्वर ने मेरे लिए भोजन की व्यवस्था किया
है । बहुत दिनों से भोजन के बिना भूखें मर रहा था आज एक साथ इतना भोजन मिल गया ।
गीध की बात सुनकर सभी वानर-भालू बहुत डर गए । तब अंगद जी बोले कि गीधों में जटायु
जी महाराज धन्य हैं जिन्होंने रामजी के कार्य हेतु अपना जीवन न्योछावर कर दिया ।
संपाती
जी गीधराज जटायु के भाई थे । गीधराज जटायु का नाम सुनकर संपाती ने वानरों से परिचय
पूछा और बोले कि निर्भय होकर पूरी बात बताइए । जटायु जी का वृतांत सुनकर संपाती को
बड़ा दुख हुआ और यह सोचकर कि उन्होंने रावण से सीताजी को छुड़ाने के लिए अपने
प्राणों का वलिदान किया है और दीनों पर दया करने वाले रामजी ने जटायु जी का अपने
पिता के समान अंतेष्टि संस्कार किया है, उन्हें संतोष हुआ । और संपाती ने वानरों
के माध्यम से समुंद्र तट पर जाकर जटायु जी को तिलांजलि दिया । उनके नवीन पंख आ गए ।
उन्होंने ने कहा की गीधों की दृष्टि बहुत दूर तक जाती है, मैं देख पा रहा हूँ
समुंद्र के उस पार लंका नगरी के अशोक वाटिका में सीताजी बैठी हुई सोच में पड़ी हैं ।
आप लोगों में से जो समुंद्र को लांघकर लंका जाएगा वह सीताजी का पता लगाने में सफल
होगा ।
आप लोग राम जी के सेवक हो ।
राम कार्य के लिए प्रयास करो । अवश्य सफलता मिलेगी । देखिए न मेरा शरीर पहले कैसा
था और अब कैसा हो गया है । ऐसा कहकर संपाती जी वहाँ से चले गए ।
यह सोच का बिषय बना हुआ था
कि समुंद्र लाँघ कर लंका कौन जाएगा ? गीधराज संपाती के माध्यम से यह पता चल चुका था कि
सीता जी लंका में ही हैं । और लंका तक पहुँचने के लिए समुंद्र पार करने के अलावा कोई
विकल्प नहीं है ।
एक-एक करके वानर और भालु समुंद्र लंघन हेतु
अपनी-अपनी असमर्थता जता चुके थे । अगंद जी पार जाने में समर्थ थे लेकिन उन्हें
वापस लौटकर आने में संशय था कि वापस आ पाऊँगा कि नहीं । अब अगंद जी के जाने से कोई
फायदा नहीं था । क्योंकि यदि पार चले भी जाते और वापस नहीं आ पाते तो सीता जी का
कोई समाचार नहीं मिलता और उल्टे एक दूसरी समस्या खड़ी हो जाती । और जामवंत जी वृद्ध
थे । ऐसे में कौन पार जाए ?
जामवंत जी को अचानक ध्यान आया कि हम लोग नाहक
में परेशान हो रहे हैं क्योंकि हम लोंगो के साथ पवनसुत हनुमान जी जो हैं । और ये
तो असंभव को भी संभव बना सकते हैं । इस प्रकार सीताजी की खोज में सर्वथा हार जाने
के बाद वानरों और भालुओं की एक मात्र आशा हनुमानजी ही बचे थे ।
सीता खोजि भालु कपि हारी । बोले अब बस आस तुम्हारी ।।
जामवंत जी ने इसलिए हनुमान जी महाराज से
कहा कि आप चुप क्यों है ? आप कुछ कह क्यों नहीं रहे हैं । आप
बलवान हैं । आप पावन के पुत्र हैं और आपका बल पवन के समान है । आप बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान के भंडार हैं । संसार में कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जिसे
आप नहीं कर सकते हों । आपके के लिए न ही कुछ कठिन है और न ही दुर्गम है ।
आपका जन्म ही रामजी का काज पूरा करने के लिए ही हुआ है ।
जामवंत जी के इतना कहने पर हनुमान जी सुमेरु पर्वत के समान दिखने लगे और सिंह के
समान बार-बार गर्जना करके जामवंत जी से बोले कि मैं सहज ही इस खारे समुंद्र को
लाँघ जाऊँगा । और सारे रक्षकों सहित रावन को मारकर त्रिकूट पर्वत (जिस पर लंका बसी
है ) को उखाड़कर यहाँ ले आऊँगा । आप जैसा उचित समझें मुझसे कहिए कि मैं क्या करूँ ।
तब जामवंत जी ने कहा कि आप समुंद्र पार करके जाइये और सीता जी से मिलकर और उनका
समाचार लेकर आ जाइए फिर राम जी वानर सेना के साथ जाकर रावण का बध करके सीताजी को
ले आएँगे और राम जी का सुयश देवता, मुनि और नारद आदि गाएंगे । इस प्रकार हनुमानजी
महाराज समुंद्र के पार जाने के लिए उद्दत हो गए ।
।। जय श्रीहनुमानजी ।।