राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Thursday, July 11, 2024

श्रीराम गीता- भाग नौ –भक्ति योग-(एक)

 

   ( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )

 

हे पवननंदन अब मैं पुनः जो बात बता रहा हूँ उसे एकाग्र होकर सुनों । जिससे इस रूप की प्राप्ति होती है तथा जिससे यह जगत व्यवहार में प्रवृत्त होता है वह तत्व मैं ही हूँ ।

 

 मुझे मनुष्य नाना प्रकार के तप, दान तथा यज्ञों के अनुष्ठान से नहीं जान सकते । मेरी परम उत्तम भक्ति को छोड़कर और किसी उपाय से मेरा सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता ।

 

 मैं ही संपूर्ण पदार्थों के भीतर अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ, सवर्त्र व्याप्त हूँ । मैं ही सबका साक्षी हूँ । किंतु संसार के लोग मुझे इस रूप में नहीं जानते । जिसके भीतर यह सारा प्रपंच विद्यमान है, जो सबका अंतरात्मा, परम पुरुष है वह मैं ही हूँ ।

 

मैं ही इस लोक में धाता और विधाता के नाम से प्रसिद्ध हूँ । मेरे सब ओर मुख हैं । मुनि, संपूर्ण देवता, ब्राह्मण, मनु, इंद्र तथा अन्य प्रख्यात तेजस्वी पुरुष भी मुझे नहीं देखते ।

 

  वेद मुझ परमेश्वर का ही सदा स्तुति करते हैं । ब्राह्मण लोग भाँति-भाँति के वैदिक यज्ञों द्वारा मुझ अग्निस्वरूप परमेश्वर का ही यजन करते हैं ।

 

मैं ही ब्रह्मलोक में पितामह हूँ । उस रूप में सब लोग मुझे ही नमस्कार करते हैं । योगी पुरुष भूतनाथ महेश्वरदेव के रूप में मेरा ही ध्यान करते हैं । मैं ही संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और फल देने वाला हूँ । संपूर्ण देवताओं का शरीर धारण करके मैं सर्वात्मा ही सबकी स्तुति-प्रशंसा का विषय हो रहा हूँ-


अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता चैव फलप्रदः ।

सर्वदेवतनुर्भू‍‌त्वा सर्वात्मा सर्वसंस्तुतः ।।  

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमान ।।

 

 

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