(
भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )
हे पवननंदन अब मैं पुनः जो बात बता रहा हूँ उसे
एकाग्र होकर सुनों ।
जिससे इस रूप की प्राप्ति होती है तथा जिससे यह जगत व्यवहार में प्रवृत्त होता है
वह तत्व मैं ही हूँ ।
मुझे मनुष्य नाना
प्रकार के तप, दान तथा यज्ञों के अनुष्ठान से नहीं जान सकते । मेरी परम उत्तम
भक्ति को छोड़कर और किसी उपाय से मेरा सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता ।
मैं ही संपूर्ण
पदार्थों के भीतर अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ, सवर्त्र व्याप्त हूँ । मैं ही सबका
साक्षी हूँ । किंतु संसार के लोग मुझे इस रूप में नहीं जानते । जिसके भीतर यह सारा
प्रपंच विद्यमान है, जो सबका अंतरात्मा, परम पुरुष है वह मैं ही हूँ ।
मैं ही इस लोक में धाता और विधाता के नाम से प्रसिद्ध हूँ ।
मेरे सब ओर मुख हैं । मुनि, संपूर्ण देवता, ब्राह्मण, मनु, इंद्र तथा अन्य
प्रख्यात तेजस्वी पुरुष भी मुझे नहीं देखते ।
वेद मुझ परमेश्वर का
ही सदा स्तुति करते हैं । ब्राह्मण लोग भाँति-भाँति के वैदिक यज्ञों द्वारा मुझ
अग्निस्वरूप परमेश्वर का ही यजन करते हैं ।
मैं ही ब्रह्मलोक में पितामह हूँ । उस रूप में सब लोग मुझे ही
नमस्कार करते हैं । योगी पुरुष भूतनाथ महेश्वरदेव के रूप में मेरा ही ध्यान करते
हैं । मैं ही संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और फल देने वाला हूँ । संपूर्ण देवताओं का
शरीर धारण करके मैं सर्वात्मा ही सबकी स्तुति-प्रशंसा का विषय हो रहा हूँ-
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता चैव
फलप्रदः ।
सर्वदेवतनुर्भूत्वा सर्वात्मा
सर्वसंस्तुतः ।।
।। जय श्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमान ।।
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