(
भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )
प्रकृति और
पुरुष ये दो तत्व कहे गए हैं । उन दोनों में संयोग उत्पन्न करनेवाल परम काल
कहा गया है, जो अनादि है । प्रकृति, पुरुष और काल ये तीनों तत्व अनादि और अनंत हैं
। मुझ अव्यक्त परमात्मा में ही इनकी स्थिति है । जो इन त्रिविधि तत्वों से अभिन्न
तथा इनसे परे भी है वही मेरा अनिर्वचनीय स्वरूप है । यह विद्वान पुरुष जानते हैं ।
मेरा
स्वरूपभूत वह परम ब्रह्म ही महत् से लेकर विशेष पर्यन्त संपूर्ण जगत की रचना करता
है । जो प्रकृति कही गाई है । वह समस्त देहधारियों को मोह में डालने वाली है ।
पुरुष उस
प्रकृति में ही स्थित होकर प्राकृत गुणों का उपभोग करता है ।अहंकार से पृथक होने
के कारण वह पचीसवाँ तत्व कहा गया है । प्रकृति का जो विकार है, उसे महान् आत्मा या
महत् तत्व कहते हैं, उसी का नाम विज्ञान शक्ति या समिष्टबुद्धि है ।
उस विज्ञान से अहंकार उत्पन्न हुआ है । एक मात्र महान् आत्मा ही अहंकार कहलाता है । तत्वचिंतक विद्वान उसी को जीव तथा अंतरात्मा कहते हैं । उसी के द्वारा प्रत्येक जन्म में प्राणी समस्त सुख-दुःखों का अनुभव करता है ।
विज्ञानात्मा से युक्त जीव
का मन उपकारक होता है । उस विज्ञानात्मा से अपने पार्थक्य का बोध न होने से पुरुष
को संसार बंधन की प्राप्ति होती है ।
।। जय श्रीराम ।।
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