राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Thursday, June 13, 2024

श्रीराम गीता- भाग सात ( उपनिषद सिद्धांत का निरूपण- दो )

 

   ( भगवान श्रीराम का हनुमानजी को उपदेश )

 

प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व कहे गए हैं । उन दोनों में संयोग उत्पन्न करनेवाल परम काल कहा गया है, जो अनादि है । प्रकृति, पुरुष और काल ये तीनों तत्व अनादि और अनंत हैं । मुझ अव्यक्त परमात्मा में ही इनकी स्थिति है । जो इन त्रिविधि तत्वों से अभिन्न तथा इनसे परे भी है वही मेरा अनिर्वचनीय स्वरूप है । यह विद्वान पुरुष जानते हैं ।

 

  मेरा स्वरूपभूत वह परम ब्रह्म ही महत् से लेकर विशेष पर्यन्त संपूर्ण जगत की रचना करता है । जो प्रकृति कही गाई है । वह समस्त देहधारियों को मोह में डालने वाली है ।

 

 पुरुष उस प्रकृति में ही स्थित होकर प्राकृत गुणों का उपभोग करता है ।अहंकार से पृथक होने के कारण वह पचीसवाँ तत्व कहा गया है । प्रकृति का जो विकार है, उसे महान् आत्मा या महत् तत्व कहते हैं, उसी का नाम विज्ञान शक्ति या समिष्टबुद्धि है ।

 

  उस विज्ञान से अहंकार उत्पन्न हुआ है । एक मात्र महान् आत्मा ही अहंकार कहलाता है । तत्वचिंतक विद्वान उसी को जीव तथा अंतरात्मा कहते हैं । उसी के द्वारा प्रत्येक जन्म में प्राणी समस्त सुख-दुःखों का अनुभव करता है । 


  विज्ञानात्मा से युक्त जीव का मन उपकारक होता है । उस विज्ञानात्मा से अपने पार्थक्य का बोध न होने से पुरुष को संसार बंधन की प्राप्ति होती है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

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