राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Tuesday, January 21, 2025

हनुमानजी का सुग्रीवजी और भगवान श्रीराम की मित्रता कराना

 

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि हनुमान जी के इस प्रश्न के उत्तर में कि ‘आप कौन हैं’ पहले भगवान श्रीराम ने अपने सर्वात्मक, सर्वेश्वर और सर्वशासक स्वरूप का परिचय दिया-

निर्गुण सगुण उभयात्मक रूपा । कहन लगे प्रभु आप स्वरूपा ।।

सर्वात्मक सर्वेश्वर रामा । सर्वशासक परात्पर परधामा ।।

 

इसके बाद लीला की दृष्टि से अपना लीलापरक परिचय दिया

कोशलेस दशरथ के जाए । हम पितु बचन मानि वन आए ।।

फिर अपने आराध्य श्रीराम को पहचानकर हनुमानजी ने रामजी की बड़ी सुंदर स्तुति किया । और रामजी अपने विराट रूप से लीला रूप में आ गए और बोले हनुमान अब तुम ऐसा करो जैसे सीता की खोज हो सके ।

 

   यह सुनकर हनुमानजी ने थोड़ी देर के लिए सोचा कि रामजी कैसी लीला कर रहे हैं सर्वात्मक, सर्वशासक और सर्वेश्वर होकर सीता जी की खोज हो सके ऐसा करने को कह रहे हैं । फिर प्रभु की इच्छा और लीला को ध्यान में रखकर हनुमानजी बोले कि हे स्वामी वानरराज सुग्रीव इसी पर्वत पर रहते हैं । वे आपके दास हैं । आप उनसे मित्रता कर लीजिए । और उन्हें दीन जानकर निर्भय कर दीजिए । वे माता सीता की खोज कराने हेतु सब ओर अनेकों बंदरों को भेंजेगे । इस प्रकार सीताजी की खोज हो संपूर्ण हो जायेगी ।

 

   ऐसा कहकर रामजी और लक्ष्मणजी को अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ चले । जब सुग्रीव जी ने रामजी को देखा तो उन्हें लगा आज निश्चय ही मेरा जन्म अत्यंत सार्थक हो गया ।

 सुग्रीव जी ने सिर झुकाकर राम जी को प्रणाम किया । और रामजी और लक्ष्मण जी ने सुग्रीव जी को गले लगा लिया । रामजी के स्वरूप, रामजी के तेज और रामजी के प्रभाव को देखकर सुग्रीवजी मन ही मन सोचने लगे कि हे विधाता क्या सचमुच ही ये मुझसे मित्रता करेंगे ।

 

  हनुमानजी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर और अग्नि देव को साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा पूर्वक रामजी और सुग्रीवजी की दृढ मित्रता करवा दिया ।

 

 इस प्रकार केवट और कोल-भीलों और किरातों को मित्र बनाने वाले रामजी ने वानर और भालुओं को भी अपना मित्र बना लिया । इन दीन हीनों से मित्रता करके राम जी को बहुत सुख प्राप्त हुआ और रामजी इसमें गौरव का अनुभव करते हैं –

केवट मीत कहे सुख मानत वानर बंधु बड़ाई ।।

 

साधरण लोग सामान्यतया दीन-हीनों से मित्रता नहीं करते । इनसे मित्रता करने से बचते हैं । किसी कारण से किसी से कर भी लें तो इसमें अपना गौरव नहीं समझते । लेकिन धन्य हैं दीन-हीनों के स्वामी रघुनाथजी जो केवल अकेले ऐसे हैं जिन्होंने खोज-खोज कर दीन हीनों को अपनाया है और उन्हें अपना मित्र बनाया है । रामजी की इस सहजता, इस सरलता पर गोस्वामीजी बिक गए । बार-बार कहते हैं कि ‘कौन ईश किए कीस भालु खास माहली’ ।।

 

 

।। जय श्रीराम ।।

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