भगवान श्रीराम और सुग्रीव जी की
मित्रता हो गई । सुग्रीवजी ने सीताजी के आभूषणों को रामजी को दिखाया और रामजी ने
आभूषणों को पहिचान कर जान लिया कि ये आभूषण सीताजी के ही हैं । सुग्रीवजी ने कहा
कि हे रघुवीर मैं आपकी हर तरह से सेवा करूँगा । जिससे जनकसुता सीता जी आप से मिल
जाएँ ।
फिर रामजी ने सुग्रीवजी से वन-पर्वत पर वसने का कारण पूछा, सुग्रीवजी ने सारी आपबीती रामजी को सुनाया । सुग्रीवजी रामजी के शरणागत हो चुके थे । रामजी उनके स्वामी और वे रामजी के सेवक बन चुके थे । और रामजी शरणागतवत्सल हैं । भक्तवत्सल हैं । सेवकवत्सल हैं । इसलिए सुग्रीवजी के दुख को सुनकर दीनों पर दया करने वाले आजानुबाहु भगवान राम की विशाल भुजाएँ फड़क उठी ।
रामजी बोले हे सुग्रीव मैं वानरराज बालि का एक
ही वाण से वध कर दूँगा । यदि वह व्रह्मा और रूद्र की शरण में भी चला जाय तो भी
उसके प्राण नहीं बचेंगे ।
रामजी ने अपनी प्रतिज्ञानुसार बालि का वध कर दिया और सुग्रीव को
किष्किन्धा का राजा बना दिया । सुग्रीवजी
राजसुख में ऐसे मग्न हो गए कि वर्षाकाल बीत जाने पर भी न रामजी मिले और न ही
सीताजी की खोज के लिए जरूरी कदम उठाये । इस पर हनुमानजी उन्हें समझाकर रामकाज के
लिए तत्पर होने के लिए चारों दिशाओं से वानर और भालुओं को बुला लाने के लिए दूत
भिजवा दिए ।
इधर रामजी की आज्ञा से
लक्ष्मणजी सुग्रीवजी को उनकी प्रतिज्ञा को याद दिलाने के लिए किष्किन्धा आए ।
लक्ष्मणजी को समझा-बुझाकर उनके रोष को शांत किया गया और चारों दिशाओं में दूत भेजे
जाने की बात लक्ष्मणजी को बताई गई । फिर हनुमानजी, जामवंतजी अंगदजी आदि को साथ
लेकर सुग्रीवजी रामजी से मिलने प्रवर्षण गिरि पर आए ।
सुग्रीवजी ने सिर झुकाकर और हाथ जोड़कर रामजी को प्रणाम किया और बोले हे नाथ मेरा कुछ भी दोष नहीं है । क्योंकि हे देव आपकी माया अत्यंत प्रबल है जो तभी छूटती है जब आप अपनी ओर से जीव पर दया करते हैं ।
हे स्वामी देवता, मुनि और मनुष्य सब के सब विषयों के वशीभूत हैं ।
फिर मेरी क्या बात है क्योंकि मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कामी बंदर
हूँ । स्त्री के नयन-वाण जिसको नहीं लगते, जो भयंकर क्रोध रूपी अँधियारी रात में
भी जागता रहता है अर्थात जो क्रोधान्ध नहीं होता और जो लोभ की रस्सी से अपने
गले को नहीं बाँध रखा है, हे रघुनाथजी वह मनुष्य तो आपके समान हो जाता है ।
उपरोक्त गुण किसी साधना से नहीं आते । आपकी कृपा से ही किसी-किसी को मिलते हैं ।
तब रामजी ने मुस्कराकर कहा कि हे भाई सुग्रीव तुम मुझे भरत के समान प्रिय हो । अब मन
लगाकर वह उपाय कीजिए जिससे सीता का समाचार मिल सके ।
इस प्रकार से बात-चीत हो ही रही थी कि वानरों के यूथ सभी दिशाओं से आ गए । सभी दिशाओं में अनेक रंगों के वानरों के दल दिखाई देने लगे । शंकरजी रामजी की कथा सुनाते हुए पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा मैंने वानरों की सेना को देखा था । यदि कोई उनकी गणना करना चाहे तो वह मूर्ख ही कहा जाएगा । क्योंकि असंख्य वानर थे । सब आकर रामजी के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करते थे और रामजी के मुखमंडल की रूप-माधुरी को देखकर सब कृतार्थ होते थे । रामजी की सेवा करने का अवसर पाकर और यह सोचकर कि हम राम जी के सेवक और ये हम लोगों के नाथ हैं, सब सनाथ हो गए ।
पूरी सेना में एक भी वानर-भालू ऐसा नहीं था जिसकी कुशल-क्षेम राम जी
ने न पूछा हो । शंकरजी कहते हैं ऐसा करना रामजी के लिए कोई बड़ी बात नहीं है
क्योंकि रामजी विश्वरूप और व्यापक हैं ।
सारे वानर और भालू आज्ञा पाकर जहाँ-तहाँ खड़े हो गए और सुग्रीवजी उनको समझाकर बताने लगे कि रामजी के कार्य को करने के लिए और मेरे लिए हे वानरों आप चारों दिशाओं में जाओ । सभी वानर और भालू रामकाज के लिए तैयार थे ।
उनका चार दल बना दिया गया । और एक महीने की समय सीमा तय की गई । एक महीने के भीतर उन्हें सीताजी का समाचार लेकर वापस आना था । दक्षिण दिशा को छोड़कर शेष दिशाओं में वानर दल सीताजी की खोज करने चले गए ।
और अब कमलनयन, रघुकुलतिलक, दीनबंधु, असरन-सरन,
असहाय-सहायक, भक्तवत्सल भगवान श्रीराम के
श्रीचरणों में प्रणाम करके चौथे दल के रीछ और वानर जगद्जननी भगवती सीता की खोज में
दक्षिण दिशा की ओर पयान कर रहे थे ।
जिनके हनु से टकराकर देवराज इंद्र के सबसे
प्रभावी अस्त्र इंद्र-बज्र के दांत टूट गए थे । जिन्होंने एक छलांग में पृथ्वी से
सूर्य की दूरी तय करके बचपन में ही सूर्य को फल समझकर अपने मुँह में रख लिया था ।
जिन्होंने अखिल भुवन प्रकाशक गतिशील श्रीसूर्य देव से उनकी ओर मुख करके पीछे चलते
हुए सारी विद्याएँ सहज ही सीख लिया था । जो वानराकार विग्रह में स्वयं भगवान
शूलपाणि ही थे । ऐसे पवनतनय, अंजनीपुत्र, केसरीनंदन, परमसंत, श्रीहनुमानजी
महाराज सबसे पीछे थे ।
जब हनुमान जी महाराज करुणानिधान भगवान श्रीराम के श्रीचरणों में प्रणाम करके चलने वाले थे तब रघुनाथ जी ने इन्हें योग्य जानकर अपने पास बुला लिया-पाछे पवनतनय सिर नावा । जानि काज प्रभु निकट बोलावा ।। उस भारी भीड़ में से राम जी ने राम काज हेतु हनुमान जी का वरण कर लिया- 'महावीर बिदित बरायो रघुवीर को' । जीवों पर भगवान की कृपा होती है । और भक्तों पर विशेष कृपा होती है । हनुमान जी पर राम जी की पहले से ही कृपा थी । लेकिन आज की बात कुछ और थी । आज रघुनाथ जी की हनुमान जी पर बहुत बड़ी कृपा हुई थी ।
रघुनाथ जी सब कुछ जानने वाले हैं । सब कुछ करने
वाले हैं । उनके सारे काज तो स्वयं सिद्ध हैं । फिर भी दासों को बड़ाई देना उनका
स्वभाव है । करते सब स्वयं हैं लेकिन उसका श्रेय दूसरों को देते हैं । जिसको बड़ाई
देना होता है, मान देना होता है उसे माध्यम बनाकर कार्य करा
देते हैं । और फिर उसका यशोगान होने लगता है ।
कृपामय राम जी ने हनुमान जी को पास
बुलाया और अपना भक्त जानकर उनके सिर पर हाथ फेरा । राम नाम अंकित अपनी अगूंठी
हनुमान जी को दिया और कहा कि सीता जी को यह अगूंठी देना । इससे उन्हें विश्वास हो
जाएगा कि आपको मैंने ही भेजा है । उन्हें भलीभाँति समझाकर और जतला कर कि उन्हें शीघ्र ही मुक्त करा लिया जाएगा आप शीघ्र
ही लौट आना ।
हनुमान जी महाराज प्रसन्न वदन हृदय में करुणानिधान राम जी को धारण
करके राम जी को सुमिरते हुए चल पड़े । हनुमान जी मन ही मन सोचते हुए जा रहे थे कि
जन्म लेना आज सार्थक हो गया । जिसे राम जी की कृपा मिल जाय, जिसे स्वयं राम जी
ने भक्त मान लिया हो, जिसे राम जी ने राम-काज के लिए चुन
लिया हो उससे बड़ा बड़भागी और कौन हो सकता है ?
।। जय श्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमान ।।