राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Tuesday, March 11, 2025

सुन्दरकाण्ड-४-हनुमान जी का सुरसा की परीक्षा में सफल होना- आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान

 

हनुमानजी महाराज मैनाक पर्वत का आदर किया लेकिन उनके सत्कार के प्रस्ताव को अस्वीकार करके आगे बढ़ गए । क्योंकि हनुमानजी महाराज को राम काज किए बिना आदर, सत्कार या विश्राम कुछ भी स्वीकार्य नहीं था । हनुमान जी लंका जा रहे थे । इसलिए देवता लोग थोड़ा बिचलित थे कि क्या होगा ? इसका एक कारण यह था कि लंका दुर्गम नगरी है । इसमें प्रवेश कर पाना ही दुर्गम है । बहुत सुरक्षा है ।  किसी तरह प्रवेश भी हो जाए तो ऐसे बड़े-बड़े राक्षसवीर योद्धा हैं जिनसे कोई पार नहीं पाता । यहाँ साधारण बल और बुद्धि से काम तो चलने वाला नहीं है । यहाँ वही सफल होगा जिसके बास असाधारण बल और बुद्धि होगी ।

 

 क्योंकि यहाँ का राजा रावण हैं जिसके वंदीखाने में लोकपाल तक बंद रहते हैं । सब देव अधिकारी ग्रह आदि जिसके अधिकार में हैं । व्रह्मा जी रोज वेद सुनाने जाते हैं । उनको ऐसा करने के लिए कह रखा हैआदेश दिया है । और शंकर जी भी भय बस रोज पूजन कराने लंका जाते हैं-शंभु सभीत पुजावन जाहीं’ । बड़ी बिडम्बना है जो दूसरों को वेदपुरान कहने-सुनने पर देश निकाला देता हैदंड देता है वह खुद वेद सुनता है । आज भी ऐसे लोग होते हैं जो खुद थोड़ा बहुत पूजा पाठ करते हैं लेकिन बाहर इसकी आलोचना करते हैं ।


खैर उपरोक्त कारणों से देवताओं को थोड़ी चिंता हुई । क्योंकि वे अपने मन को समझा पाने में सफल नहीं हो पा रहे थे कि सीता माता का पता लगाकर सकुशल हनुमान जी वापस आ जाएँगे । इसलिए सर्पों की माता सुरसा से देवताओं ने कहा कि आप हनुमान जी के बल और बुद्धि की परीक्षा लीजिए । जिससे पता चल सके कि वे रामकाज में सफल हो जाएँगे ।

 

  देवताओं के कहने पर सुरसा जी हनुमान जी के मार्ग में आयीं और बोलीं कि देवताओं ने आज मुझे अहार दिया है । इससे मैं अपनी भूँख शांत करूंगी । यह सुनकर पवनपुत्र हनुमान जी ने कहा कि मुझे रामकाज करना है , लंका जाकर सीता माता का पता लगाकर रामजी को समाचार सुनाना है । इतना करके मैं स्वयं आपके मुँह में प्रवेश कर जाऊँगा । हे माता मैं सत्य कहता हूँ । आप मेरा रास्ता मत रोकिये मुझे जाने दीजिए । हनुमान जी ने बहुत प्रयत्न किया , नीति और धर्म युक्त बाते कहीं फिर भी सुरसा टस से मस नहीं हुई तब हनुमान जी बोले कि आप मान ही नहीं रही हैं तो मुझे अपना भोजन बना लीजिए ।

 

 यह सुनकर सुरसा ने एक योजन (आठ मील) तक अपने मुहँ को फैला लिया । तब हनुमान जी महाराज ने दो योजन का अपना आकार बना लिया । यह देखकर सुरसा ने सोलह योजन तक अपने मुँह को विस्तारित कर लिया । तब हनुमान जी ने अपना आकार बत्तीस योजन का कर लिया । इस प्रकार सुरसा अपना मुँह विस्तृत करती रहीं और हनुमाना जी जय श्रीराम बोलकर दुगना आकार बढ़ाते चले गए । कहते हैं कि भगवान राम के नाम में दो अक्षर हैं इसलिए एक बार राम बोलने पर हनुमान जी महाराज सुरसा के मुँह से दुगुने आकार के हो जाते थे ।

 

अंततः सुरसा ने सौ योजन तक अपने मुँह को विस्तारित कर लिया । अब अपनी असाधारण वुद्धि का परिचय देते हुए हनुमान जी बहुत ही सूक्ष्म रूप धारण करके सुरसा के मुँह में प्रवेश कर गए और फौरन वापस भी आ गए । हनुमान जी महाराज इसी बात का वादा भी कर रहे थे कि सीता जी का समाचार राम जी को देकर मैं आपके मुँह में प्रवेश कर जाऊंगा । लेकिन सुरसा ने माना नहीं तो इसलिए आज ही यह काम समपन्न कर दिए ।

 

सुरसा के मुँह से बाहर निकलकर हनुमान जी ने सुरसा जी को प्रणाम करके विदा माँगी कि माता जी अब मुझे जाने दीजिए । सुरसा प्रसन्न होकर बोलीं कि देवताओं ने मुझे जिस काम के लिए भेजा था वह मैंने कर दिया । मुझे आपके बल और बुद्धि का मरम मिल गया है । आप बल और बुद्धि के भंडार हो । आप राम जी के सभी काम को समपन्न कर सकोगे । ऐसा आशीर्वाद देकर सुरसा चली गईं । और हनुमान जी महाराज प्रसन्न होकर आगे चले ।

राम काज सब करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान । 

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ।।


।। जय हनुमानजी ।। 

  


 

Monday, March 3, 2025

सुन्दरकाण्ड-३- हनुमानजी का मैनाक पर्वत का आदर करके बिना विश्राम किए आगे बढ़ना-राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम

 

हनुमान जी महाराज सीता जी का पता लगाने के लिए रामवाण की तरह लंका चल दिए ।  समुंद्र ने विचार किया कि हनुमान जी  राम जी के दूत हैं और इसलिए उसने मैनाक पर्वत से कहा कि तुम हनुमान जी को अपने ऊपर विश्राम दो । जिससे उनकी थकान दूर हो जायेगी । 


समुंद्र का निर्माण राम जी के पुरखों ने किया था । राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने इसका निर्माण किया था । इसलिए समुंद्र रघुकुल का कृतग्य था । 


वहीं दूसरी ओर देवराज इंद्र के डर से मैनाक ने समुंद्र में शरण ले रखा था । पवन देवता ने इसमें मैनाक की मदद किया था । और हनुमान जी पवन देवता के औरस पुत्र हैं  इसलिए मैनाक वायु देवता के उपकार के प्रति कृतग्य होने से और समुद्र ने अपने भीतर मैनाक पर्वत को शरण दे रखा था इससे समुद्र के कहने पर हनुमान जी को अपने ऊपर विश्राम देने हेतु प्रस्तुत हुआ  

 

 मैनाक ने हनुमान जी से विश्राम करने के लिए कहा । लेकिन हनुमान जी के पास विश्राम के लिए समय नहीं था । उनकी पहली प्राथमिकता रामकाज की थी यानी सीता जी का पता लगाने की थी । ऐसे में विश्राम कहाँ ? हनुमानजी जैसा स्वामिभक्त, आज्ञा पालक, सेवा परायण सेवक और कौन हो सकता है ? 


इसलिए हनुमान जी ने मैनाक को स्पर्श कर लिया ।  इसप्रकार मैनाक का आदर किया । और प्रणाम किया । और बोले बिना रामकाज सम्पन्न किए अर्थात बिना सीता माता का पता लगाए मुझे विश्राम नहीं है ।

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम । 

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम । 


। जय हनुमान 

 

Tuesday, February 18, 2025

सुंदरकाण्ड-२-सीताजी की खोज के लिए हनुमानजी का समुद्र के उस पार जाने के लिए प्रस्थान करना – चलेउ हरषि हिय धरि रघुनाथा

    

जामवंत जी के सुंदर बचन हनुमान जी महाराज को बहुत अच्छे लगे । हुनमान जी ने प्रसन्न वदन कहा कि यहाँ आप लोग कंद-मूल फल खाकर कष्ट सहकर भी मेरी तब तक प्रतीक्षा कीजिए जब तक मैं सीताजी का समाचार लेकर न आ जाऊँ । हनुमान जी ने कहा कि मुझे बहुत हर्ष हो रहा है इसलिए काज हो जाएगा । मैं सीता जी का पता लगाने में सफल हो जाऊँगा ।

ऐसा कहकर हनुमान जी ने सभी को प्रणाम करके खुश होकर रघुनाथ जी को हृदय में धारण करके चल दिए ।

समुंद्र के किनारे एक सुंदर पर्वत था । हनुमान जी सहज ही देखते ही देखते उसके ऊपर चढ़ गए । और बार-बार राम जी का सुमिरन करके वहाँ से छलांग लगाई । बलवान हनुमान जी ने इस वेग से उड़ान भरी कि उनके पैर के दबाव से पर्वत तुरंत धँसता हुआ पताल चला गया ।

जिस तरह भगवान राम का वाण अमोघ होता है और चलता है ठीक इसी तरह हनुमान जी महाराज भी चले ।

राम जी के वाण की तरह चलने का मतलब क्या है ? भगवान राम के वाण की कई विशेषता होती है । यह अमोघ होता है । यानी कभी निष्फल नहीं होता । इसका मतलब यह है कि हनुमान जी महाराज भी निष्फल नहीं होंगे । अर्थात वे सीता जी का पता लगा ले जाएँगे । लक्ष्य तक पहुँच जाएँगे ।

  दूसरे राम जी का वाण बहुत ही गतिमान होता है । इसी तरह बड़ी तीव्र गति से हनुमान जी भी चले । अंगद जी कह रहे थे कि मैं चला तो जाऊँगा लेकिन संशय है कि वापस आ पाऊँगा या नहीं । लेकिन राम जी का वाण लक्ष्य वेध कर वापस तर्कस में आ जाता है यह इसकी यानी राम वाण की बड़ी विशेषता होती है । इसी तरह यानी राम वाण की तरह हनुमान जी महाराज वापस आ जाएँगे इसमें कोई संशय नहीं है ।

इस प्रकार परम बलशाली और वेगशाली हनुमानजी ने सीताजी की खोज के लिए समुंद्र को लाँघने के लिए बार-बार भगवान श्रीराम का स्मरण करके उड़ान भरके आकाशमार्ग से लंका की ओर प्रस्थान किया-


बार-बार राम को संभारि रामकाज हेतु रामदूत उड़ि चले ।

बल बुद्धि ज्ञान के निधान अंजना को लाल जैसो कौन मिले ।।

महावीर वेग ते पहाड़, नीर तरु आदि जोर-जोर ते हिले ।

पूरेगी मन आस रामदास खास, देखि देवतन के मन खिले ।।


।। जय हनुमान ।।

Saturday, February 8, 2025

सुंदरकाण्ड-१ -हनुमानजी के बल का वर्णन-अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं

हनुमान जी महाराज अतुलित बल के भंडार हैं । यह नहीं कहा जा सकता है कि हनुमान जी में कितना बल है यानी इनके बल को मापा नहीं जा सकता । इनके बल की किसी से तुलना नहीं हो सकती । 


 कहते हैं कि दस हजार हाथी में जितना बल होता है उतना बल एक दिग्गज में और दस हजार दिग्गज में जितना बल होता है उतना बल एक ऐरावत हाथी में होता है । जितना बल दस हजार ऐरावत हाथी में होता है उतना बल एक देवराज इंद्र में होता है । और जितना बल दस हजार देवराज इंद्र में होता है उतना बल हनुमान जी की एक कनिष्ठा ऊँगली में है । 


ऐसे में यही कहा जा सकता है कि हनुमान जी के बल का कोई माप नहीं है और वे अनंत बल के धाम हैं ।

 

   हनुमान जी महाराज के देह की कांति सुमेरु पर्वत की भाँति हैं । अर्थात वे स्वर्ण की सी आभा वाले हैं । और उनकी विराटता भी पर्वत के समान है । राक्षस रुपी वन को जलाने के लिए हनुमान जी महाराज अग्नि के समान हैं । 


ज्ञानियों में हनुमान जी महाराज सबसे श्रेष्ठ हैंसबसे आगे हैं । हनुमान जी महाराज सभी सदगुणों के भंडार है । और वानरों में श्रेष्ठ हैं व उनके प्रमुख है । रामजी के प्रिय हैंभक्त हैंश्रेष्ठ दूत हैं । ऐसे पवनपुत्र हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ ।

 

।। जय हनुमान ।।


Saturday, February 1, 2025

सीताजी की खोज के लिए हनुमानजी का समुद्र के उस पार जाने के लिए तैयार होना

 

भगवान श्रीराम की आज्ञा और आशीर्वाद पाकर हनुमानजी महाराज अगंद जी के नेतृत्व में दक्षिण दिशा में जाने वाले वानरों और भालुओं के साथ चल दिए । एक वन से दूसरे वन, नगर, उपवन, गिरि-पर्वत पर अनुसंधान करते हुए अधिक समय बीत गया ।

एक दिन भूँख और प्यास से व्याकुल होकर हनुमानजी को आगे करके देवी स्वयंप्रभा जहाँ तपस्या कर रही थीं उस दुर्गम गुफा में सब प्रवेश कर गए । उनके पूछने पर सबने अपना वृतांत सुनाया और उनकी आज्ञा लेकर स्वादिष्ट फल और जल का पान किया । उस दुर्गम गुफा से बाहर निकलना बड़ा मुश्किल था । देवी ने कहा आप लोग अपनी-अपनी आँखे मूँद लीजिए मैं आप सबको गुफा से बाहर निकलने में सहायता करूँगी ।

   सभी ने अपनी-अपनी आँखे बंद कर लिया और जब आँखे खोलीं तो सबके सब विशाल समुंद्र के किनारे पहुँच चुके थे । देवी वहाँ से किष्किन्धा पर्वत पर भगवान श्रीराम का दर्शन करने चली गईं । भगवान श्रीराम का दर्शन करके देवी ने बड़ी सुंदर स्तुति किया और आशिर्वाद पाकर बद्रीवन में तपस्या करने के लिए चली गईं ।       

अब श्रीसीताजी की खोज में वानर और भालुओं के लिए समुद्र एक बहुत बड़ी बाधा बना हुआ था । वानर-भालू बहुत चिंतित थे कि एक महीने की अवधि भी बीत गई और अब तक सीताजी का कोई समाचार नहीं मिल सका । वानर और भालुओं की आपसी चर्चा को सुनकर संपाती नामक विशाल गीध अपनी गुफा से बाहर आकर वानरों और भालुओं के विशाल समूह को देखा और बड़ा प्रसन्न हुआ । और बोला कि जगदीश्वर ने मेरे लिए भोजन की व्यवस्था किया है । बहुत दिनों से भोजन के बिना भूखें मर रहा था आज एक साथ इतना भोजन मिल गया । गीध की बात सुनकर सभी वानर-भालू बहुत डर गए । तब अंगद जी बोले कि गीधों में जटायु जी महाराज धन्य हैं जिन्होंने रामजी के कार्य हेतु अपना जीवन न्योछावर कर दिया ।

  संपाती जी गीधराज जटायु के भाई थे । गीधराज जटायु का नाम सुनकर संपाती ने वानरों से परिचय पूछा और बोले कि निर्भय होकर पूरी बात बताइए । जटायु जी का वृतांत सुनकर संपाती को बड़ा दुख हुआ और यह सोचकर कि उन्होंने रावण से सीताजी को छुड़ाने के लिए अपने प्राणों का वलिदान किया है और दीनों पर दया करने वाले रामजी ने जटायु जी का अपने पिता के समान अंतेष्टि संस्कार किया है, उन्हें संतोष हुआ । और संपाती ने वानरों के माध्यम से समुंद्र तट पर जाकर जटायु जी को तिलांजलि दिया । उनके नवीन पंख आ गए । उन्होंने ने कहा की गीधों की दृष्टि बहुत दूर तक जाती है, मैं देख पा रहा हूँ समुंद्र के उस पार लंका नगरी के अशोक वाटिका में सीताजी बैठी हुई सोच में पड़ी हैं । आप लोगों में से जो समुंद्र को लांघकर लंका जाएगा वह सीताजी का पता लगाने में सफल होगा ।

 आप लोग राम जी के सेवक हो । राम कार्य के लिए प्रयास करो । अवश्य सफलता मिलेगी । देखिए न मेरा शरीर पहले कैसा था और अब कैसा हो गया है । ऐसा कहकर संपाती जी वहाँ से चले गए ।

   यह सोच का बिषय बना हुआ था कि समुंद्र लाँघ कर लंका कौन जाएगा ? गीधराज संपाती के माध्यम से यह पता चल चुका था कि सीता जी लंका में ही हैं । और लंका तक पहुँचने के लिए समुंद्र पार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है ।

 एक-एक करके वानर और भालु समुंद्र लंघन हेतु अपनी-अपनी असमर्थता जता चुके थे । अगंद जी पार जाने में समर्थ थे लेकिन उन्हें वापस लौटकर आने में संशय था कि वापस आ पाऊँगा कि नहीं । अब अगंद जी के जाने से कोई फायदा नहीं था । क्योंकि यदि पार चले भी जाते और वापस नहीं आ पाते तो सीता जी का कोई समाचार नहीं मिलता और उल्टे एक दूसरी समस्या खड़ी हो जाती । और जामवंत जी वृद्ध थे । ऐसे में कौन पार जाए  ?

 जामवंत जी को अचानक ध्यान आया कि हम लोग नाहक में परेशान हो रहे हैं क्योंकि हम लोंगो के साथ पवनसुत हनुमान जी जो हैं । और ये तो असंभव को भी संभव बना सकते हैं । इस प्रकार सीताजी की खोज में सर्वथा हार जाने के बाद वानरों और भालुओं की एक मात्र आशा हनुमानजी ही बचे थे ।

सीता खोजि भालु कपि हारी । बोले अब बस आस तुम्हारी ।।


  जामवंत जी ने इसलिए हनुमान जी महाराज से कहा कि आप चुप क्यों है ? आप कुछ कह क्यों नहीं रहे हैं । आप बलवान हैं । आप पावन के पुत्र हैं और आपका बल पवन के समान है । आप बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान के भंडार हैं । संसार में कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जिसे आप नहीं कर सकते हों । आपके के लिए न ही कुछ कठिन है और न ही दुर्गम है । 

आपका जन्म ही रामजी का काज पूरा  करने के लिए ही हुआ है । जामवंत जी के इतना कहने पर हनुमान जी सुमेरु पर्वत के समान दिखने लगे और सिंह के समान बार-बार गर्जना करके जामवंत जी से बोले कि मैं सहज ही इस खारे समुंद्र को लाँघ जाऊँगा । और सारे रक्षकों सहित रावन को मारकर त्रिकूट पर्वत (जिस पर लंका बसी है ) को उखाड़कर यहाँ ले आऊँगा । आप जैसा उचित समझें मुझसे कहिए कि मैं क्या करूँ । तब जामवंत जी ने कहा कि आप समुंद्र पार करके जाइये और सीता जी से मिलकर और उनका समाचार लेकर आ जाइए फिर राम जी वानर सेना के साथ जाकर रावण का बध करके सीताजी को ले आएँगे और राम जी का सुयश देवता, मुनि और नारद आदि गाएंगे । इस प्रकार हनुमानजी महाराज समुंद्र के पार जाने के लिए उद्दत हो गए ।

 

।। जय श्रीहनुमानजी ।।

Sunday, January 26, 2025

रामकाज के लिए हनुमानजी का चयन- जानि काज प्रभु निकट बोलावा

 

भगवान श्रीराम और सुग्रीव जी की मित्रता हो गई । सुग्रीवजी ने सीताजी के आभूषणों को रामजी को दिखाया और रामजी ने आभूषणों को पहिचान कर जान लिया कि ये आभूषण सीताजी के ही हैं । सुग्रीवजी ने कहा कि हे रघुवीर मैं आपकी हर तरह से सेवा करूँगा । जिससे जनकसुता सीता जी आप से मिल जाएँ ।


फिर रामजी ने सुग्रीवजी से वन-पर्वत पर वसने का कारण पूछा, सुग्रीजी ने सारी आपबीती रामजी को सुनाया । सुग्रीवजी रामजी के शरणागत हो चुके थे । रामजी उनके स्वामी और वे रामजी के सेवक बन चुके थे । और रामजी शरणागतवत्सल हैं । भक्तवत्सल हैं । सेवकवत्सल हैं । इसलिए सुग्रीवजी के दुख को सुनकर दीनों पर दया करने वाले आजानुबाहु भगवान राम की विशाल भुजाएँ फड़क उठी ।


  रामजी बोले हे सुग्रीव मैं वानरराज बालि का एक ही वाण से वध कर दूँगा । यदि वह व्रह्मा और रूद्र की शरण में भी चला जाय तो भी उसके प्राण नहीं बचेंगे ।


रामजी ने अपनी प्रतिज्ञानुसार बालि का वध कर दिया और सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया ।  सुग्रीवजी राजसुख में ऐसे मग्न हो गए कि वर्षाकाल बीत जाने पर भी न रामजी मिले और न ही सीताजी की खोज के लिए जरूरी कदम उठाये । इस पर हनुमानजी उन्हें समझाकर रामकाज के लिए तत्पर होने के लिए चारों दिशाओं से वानर और भालुओं को बुला लाने के लिए दूत भिजवा दिए ।

 

  इधर रामजी की आज्ञा से लक्ष्मणजी सुग्रीवजी को उनकी प्रतिज्ञा को याद दिलाने के लिए किष्किन्धा आए । लक्ष्मणजी को समझा-बुझाकर उनके रोष को शांत किया गया और चारों दिशाओं में दूत भेजे जाने की बात लक्ष्मणजी को बताई गई । फिर हनुमानजी, जामवंतजी अंगदजी आदि को साथ लेकर सुग्रीवजी रामजी से मिलने प्रवर्षण गिरि पर आए ।


सुग्रीवजी ने सिर झुकाकर और हाथ जोड़कर रामजी को प्रणाम किया और बोले हे नाथ मेरा कुछ भी दोष नहीं है । क्योंकि हे देव आपकी माया अत्यंत प्रबल है जो तभी छूटती है जब आप अपनी ओर से जीव पर दया करते हैं ।

 

हे स्वामी देवता, मुनि और मनुष्य सब के सब विषयों के वशीभूत हैं । फिर मेरी क्या बात है क्योंकि मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कामी बंदर हूँ । स्त्री के नयन-वाण जिसको नहीं लगते, जो भयंकर क्रोध रूपी अँधियारी रात में भी जागता रहता है अर्थात जो क्रोधान्ध नहीं होता और जो लोभ की रस्सी से अपने गले को नहीं बाँध रखा है, हे रघुनाथजी वह मनुष्य तो आपके समान हो जाता है । उपरोक्त गुण किसी साधना से नहीं आते । आपकी कृपा से ही किसी-किसी को मिलते हैं । तब रामजी ने मुस्कराकर कहा कि हे भाई सुग्रीव तुम मुझे भरत के समान प्रिय हो । अब मन लगाकर वह उपाय कीजिए जिससे सीता का समाचार मिल सके ।

 

इस प्रकार से बात-चीत हो ही रही थी कि वानरों के यूथ सभी दिशाओं से आ गए । सभी दिशाओं में अनेक रंगों के वानरों के दल दिखाई देने लगे । शंकरजी रामजी की कथा सुनाते हुए पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा मैंने वानरों की सेना को देखा था । यदि कोई उनकी गणना करना चाहे तो वह मूर्ख ही कहा जाएगा । क्योंकि असंख्य वानर थे । सब आकर रामजी के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करते थे और रामजी के मुखमंडल की रूप-माधुरी को देखकर सब कृतार्थ होते थे । रामजी की सेवा करने का अवसर पाकर और यह सोचकर कि हम राम जी के सेवक और ये हम लोगों के नाथ हैं, सब सनाथ हो गए ।

 

पूरी सेना में एक भी वानर-भालू ऐसा नहीं था जिसकी कुशल-क्षेम राम जी ने न पूछा हो । शंकरजी कहते हैं ऐसा करना रामजी के लिए कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि रामजी विश्वरूप और व्यापक हैं ।

 

सारे वानर और भालू आज्ञा पाकर जहाँ-तहाँ खड़े हो गए और सुग्रीवजी उनको समझाकर बताने लगे कि रामजी के कार्य को करने के लिए और मेरे लिए हे वानरों आप चारों दिशाओं में जाओ । सभी वानर और भालू रामकाज के लिए तैयार थे ।

 

  उनका चार दल बना दिया गया । और एक महीने की समय सीमा तय की गई । एक महीने के भीतर उन्हें सीताजी का समाचार लेकर वापस आना था । दक्षिण दिशा को छोड़कर शेष दिशाओं में वानर दल सीताजी की खोज करने चले गए ।


और अब कमलनयन, रघुकुलतिलक, दीनबंधु, असरन-सरन, असहाय-सहायक, भक्तवत्सल भगवान श्रीराम के श्रीचरणों में प्रणाम करके चौथे दल के रीछ और वानर जगद्जननी भगवती सीता की खोज में दक्षिण दिशा की ओर पयान कर रहे थे ।


 जिनके हनु से टकराकर देवराज इंद्र के सबसे प्रभावी अस्त्र इंद्र-बज्र के दांत टूट गए थे । जिन्होंने एक छलांग में पृथ्वी से सूर्य की दूरी तय करके बचपन में ही सूर्य को फल समझकर अपने मुँह में रख लिया था । जिन्होंने अखिल भुवन प्रकाशक गतिशील श्रीसूर्य देव से उनकी ओर मुख करके पीछे चलते हुए सारी विद्याएँ सहज ही सीख लिया था । जो वानराकार विग्रह में स्वयं भगवान शूलपाणि ही थे । ऐसे पवनतनय, अंजनीपुत्र, केसरीनंदन, परमसंत, श्रीहनुमानजी महाराज सबसे पीछे थे ।

 

  जब हनुमान जी महाराज करुणानिधान भगवान श्रीराम के श्रीचरणों में प्रणाम करके चलने वाले थे तब रघुनाथ जी ने इन्हें योग्य जानकर अपने पास बुला लिया-पाछे पवनतनय सिर नावा जानि काज प्रभु निकट बोलावा ।। उस भारी भीड़ में से राम जी ने राम काज हेतु हनुमान जी का वरण कर लिया- 'महावीर बिदित बरायो रघुवीर को' । जीवों पर भगवान की कृपा होती है । और भक्तों पर विशेष कृपा होती है । हनुमान जी पर राम जी की पहले से ही कृपा थी । लेकिन आज की बात कुछ और थी । आज रघुनाथ जी की हनुमान जी पर बहुत बड़ी कृपा हुई थी ।

 

 रघुनाथ जी सब कुछ जानने वाले हैं । सब कुछ करने वाले हैं । उनके सारे काज तो स्वयं सिद्ध हैं । फिर भी दासों को बड़ाई देना उनका स्वभाव है । करते सब स्वयं हैं लेकिन उसका श्रेय दूसरों को देते हैं । जिसको बड़ाई देना होता है, मान देना होता है उसे माध्यम बनाकर कार्य करा देते हैं । और फिर उसका यशोगान होने लगता है ।

 

   कृपामय राम जी ने हनुमान जी को पास बुलाया और अपना भक्त जानकर उनके सिर पर हाथ फेरा । राम नाम अंकित अपनी अगूंठी हनुमान जी को दिया और कहा कि सीता जी को यह अगूंठी देना । इससे उन्हें विश्वास हो जाएगा कि आपको मैंने ही भेजा है । उन्हें भलीभाँति समझाकर और जतला कर कि उन्हें शीघ्र ही मुक्त करा लिया जाएगा आप शीघ्र ही लौट आना ।


हनुमान जी महाराज प्रसन्न वदन हृदय में करुणानिधान राम जी को धारण करके राम जी को सुमिरते हुए चल पड़े । हनुमान जी मन ही मन सोचते हुए जा रहे थे कि जन्म लेना आज सार्थक हो गया । जिसे राम जी की कृपा मिल जाय, जिसे स्वयं राम जी ने भक्त मान लिया हो, जिसे राम जी ने राम-काज के लिए चुन लिया हो उससे बड़ा बड़भागी और कौन हो सकता है ?


।। जय श्रीराम ।। 

।। जय श्रीहनुमान ।।


Tuesday, January 21, 2025

हनुमानजी का सुग्रीवजी और भगवान श्रीराम की मित्रता कराना

 

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि हनुमान जी के इस प्रश्न के उत्तर में कि ‘आप कौन हैं’ पहले भगवान श्रीराम ने अपने सर्वात्मक, सर्वेश्वर और सर्वशासक स्वरूप का परिचय दिया-

निर्गुण सगुण उभयात्मक रूपा । कहन लगे प्रभु आप स्वरूपा ।।

सर्वात्मक सर्वेश्वर रामा । सर्वशासक परात्पर परधामा ।।

 

इसके बाद लीला की दृष्टि से अपना लीलापरक परिचय दिया

कोशलेस दशरथ के जाए । हम पितु बचन मानि वन आए ।।

फिर अपने आराध्य श्रीराम को पहचानकर हनुमानजी ने रामजी की बड़ी सुंदर स्तुति किया । और रामजी अपने विराट रूप से लीला रूप में आ गए और बोले हनुमान अब तुम ऐसा करो जैसे सीता की खोज हो सके ।

 

   यह सुनकर हनुमानजी ने थोड़ी देर के लिए सोचा कि रामजी कैसी लीला कर रहे हैं सर्वात्मक, सर्वशासक और सर्वेश्वर होकर सीता जी की खोज हो सके ऐसा करने को कह रहे हैं । फिर प्रभु की इच्छा और लीला को ध्यान में रखकर हनुमानजी बोले कि हे स्वामी वानरराज सुग्रीव इसी पर्वत पर रहते हैं । वे आपके दास हैं । आप उनसे मित्रता कर लीजिए । और उन्हें दीन जानकर निर्भय कर दीजिए । वे माता सीता की खोज कराने हेतु सब ओर अनेकों बंदरों को भेंजेगे । इस प्रकार सीताजी की खोज हो संपूर्ण हो जायेगी ।

 

   ऐसा कहकर रामजी और लक्ष्मणजी को अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ चले । जब सुग्रीव जी ने रामजी को देखा तो उन्हें लगा आज निश्चय ही मेरा जन्म अत्यंत सार्थक हो गया ।

 सुग्रीव जी ने सिर झुकाकर राम जी को प्रणाम किया । और रामजी और लक्ष्मण जी ने सुग्रीव जी को गले लगा लिया । रामजी के स्वरूप, रामजी के तेज और रामजी के प्रभाव को देखकर सुग्रीवजी मन ही मन सोचने लगे कि हे विधाता क्या सचमुच ही ये मुझसे मित्रता करेंगे ।

 

  हनुमानजी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर और अग्नि देव को साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा पूर्वक रामजी और सुग्रीवजी की दृढ मित्रता करवा दिया ।

 

 इस प्रकार केवट और कोल-भीलों और किरातों को मित्र बनाने वाले रामजी ने वानर और भालुओं को भी अपना मित्र बना लिया । इन दीन हीनों से मित्रता करके राम जी को बहुत सुख प्राप्त हुआ और रामजी इसमें गौरव का अनुभव करते हैं –

केवट मीत कहे सुख मानत वानर बंधु बड़ाई ।।

 

साधरण लोग सामान्यतया दीन-हीनों से मित्रता नहीं करते । इनसे मित्रता करने से बचते हैं । किसी कारण से किसी से कर भी लें तो इसमें अपना गौरव नहीं समझते । लेकिन धन्य हैं दीन-हीनों के स्वामी रघुनाथजी जो केवल अकेले ऐसे हैं जिन्होंने खोज-खोज कर दीन हीनों को अपनाया है और उन्हें अपना मित्र बनाया है । रामजी की इस सहजता, इस सरलता पर गोस्वामीजी बिक गए । बार-बार कहते हैं कि ‘कौन ईश किए कीस भालु खास माहली’ ।।

 

 

।। जय श्रीराम ।।

Wednesday, January 1, 2025

अंजना के वारे-दुलारे सिया सुधि लेने पधारे

 

।। श्रीहनुमते नमः ।।

 

अंजना के वारे-दुलारे सिया सुधि लेने पधारे ।

देवन के मन आशा जागी, हर्षे विपुल निराशा भागी ।

बनिहैं काज हमारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।१।।

जामवंत बल बोलि पठाए, परसेउ गिरि विश्राम न भाए ।

रघुपति राम सँभारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।२।।

सुरसा से वर आशिष पाए, दुष्ट सिहिंका मारि के आए ।

जय श्रीराम उचारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।३।।

वृहद सिंधु नाघि कर आए, लंकिनी को निज बल दिखलाए ।

मुख में मुद्रिका डारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।४।।

खोजे बहुत सिया नहिं पाए, भक्त विभीषण गृह तब आए

दोउ मिलि मंत्र विचारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।५।।

मुंदरी दै संदेश सुनाए, अजर अमर गुननिधि वर पाए ।

कृपा करैं अवधदुलारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।६।।

सीता से मिलि बाग उजारे, रावण पालित लंका जारे ।

असुरन को संघारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।७।।

दीन संतोष राम पहिं आए, सीता की सुधि प्रभुहिं सुनाए ।

कपि हम भए तुम्हारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।८।।

रावण जीति सिया प्रभु लाए, राजाराम अवध में छाए ।

सकल भुवन जयकारे ।। सिया सुधि लेने पधारे ।।९।।

 


।। अंजना के वारे दुलारे संकटमोचन हनुमान जी की जय ।।

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सुन्दरकाण्ड-४-हनुमान जी का सुरसा की परीक्षा में सफल होना- आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान

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