राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Saturday, October 18, 2025

सुन्दरकाण्ड-१४ - त्रिजटा का स्वप्न और हनुमान जी का अशोक वृक्ष से मुँदरी गिरना

 

लंका में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी रहती थी । जिसे रावण ने अशोक वाटिका में सीताजी की रखवाली में लगा रखा था । त्रिजटा निपुण बुद्धि वाली थी । और उसे राम जी के चरणों में अनुराग था । उसने सभी राक्षसियों को बुलाकर कहा कि सीता जी की सेवा करके अपना हित साधन कीजिए । क्योंकि मैंने एक सपना देखा है जिसमें एक बानर ने लंका को जला दिया है और सारी राक्षसी सेना का संहार कर दिया है । रावण गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है और उसकी बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं तथा सिर मुड़ा (केश रहित है ) हुआ है । और लंका का राज्य मानो विभीषण को मिल गया है ।

 

 सारे राज्य में राम जी के विजय का डंका बज रहा है और इसके बाद राम जी ने सीता जी को लंका से वापस अपने पास बुलवा लिया है । मैं जोर से कह रहीं हूँ कि यह सपना कुछ ही दिनों में सत्य हो जाएगा । त्रिजटा के ऐसे बचन सुनकर सारी राक्षसियाँ डर गईं और सीता जी के चरणों में गिर गईं । इसके बाद राक्षसियाँ जहाँ-तहाँ चलीं गईं । और सीता जी अपने मन में चिंतित होकर सोचने लगीं कि नीच राक्षस एक महीना व्यतीत होने पर मुझे मार डालेगा ।

 

 सीता जी त्रिजटा से हाथ जोड़कर बोलीं कि माता आप इस बिपति की घड़ी में मेरी संगिनी हो । लेकिन अब मुझसे दुसहनिये विरह सहा नहीं जाता । इसलिए कोई उपाय कीजिए जिससे मैं अपनी देंह तज सकूँ । माता जी आप काठ ले आइये और चिता बना दीजिए और फिर उसमें आग लगा दीजिए । रावण के काँटे के समान कानों को बीध डालने वाले बचन को कौन सुनें  ? अतः हे बुद्धिमती राम जी के प्रति मेरी प्रीति को सत्य कर दीजिए ।

 

सीताजी के ऐसे बचनों को सुनकर त्रिजटा ने उनका चरण पकड़कर रामजी के प्रताप, बल और यश को सुनाकर समझाया । त्रिजटा ने कहा कि हे सुकुमारी रात में अग्नि नहीं मिलेगी । ऐसा कहकर वह अपने घर को चली गई ।

 

सीता जी कहने लगीं कि बिधाता ही मेरे प्रतिकूल हो गया है ।  इसलिए अग्नि नहीं मिलेगी  और मेरा दुख दूर नहीं होगा । आकाश में प्रगट रूप से (तारो में) अग्नि दिखाई दे रही है । लेकिन पृथ्वी पर कोई भी तारा नहीं आ रहा है । चंद्रमा अग्निमय दिख रहा है लेकिन वह भी मुझे अभागी जानकर अग्नि स्रवावित नहीं कर रहा है । सीता जी अशोक वृक्ष से ही कहने लगीं के अशोक आप ही मेरी विनती सुन लीजिए और मेरा शोक दूर करके अपने नाम को सत्य कर दीजिए । आपके नए कोमल पत्ते अग्नि के समान के हैं (उनमें अग्नि का आभास  हो रहा है) । इसलिए आप मुझे अग्नि दे दीजिए । जिससे मेरी वेदना और न बढ़े । यानी समाप्त हो जाए ।

 

इसप्रकार सीता जी को राम जी के विरह में बहुत आकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी महाराज को एक कलप (लगभग चार करोड़ बत्तीस लाख वर्ष) के समान व्यतीत हुआ ।

 

हनुमान जी महाराज ने ह्रदय में बिचारकर, उचित समय जानकर राम जी की मुँदरी गिरा दी । सीता जी ने मुँदरी की चमक को देखकर सोचा कि मानो अशोक वृक्ष ने अंगार दे दिया है । और यह सोचकर हर्षित होकर उसे हाथ में ले लिया ।   

 

  जय श्रीराम   

  जय श्रीहनुमान   

Sunday, October 12, 2025

सुंदरकाण्ड-१३ अशोका वाटिका में सीताजी और रावण का संवाद

 

हनुमान जी महाराज ने फिर से वही छोटा सा आकर बना कर अशोक वन में प्रवेश कर गए । सीताजी को देखकर हनुमानजी महाराज ने मन ही मन प्रणाम किया । बैठे-बैठे ही सीताजी रात बिताती थीं । उनका शरीर दुबला हो गया था । सिर पर जटा थी जिसमें एक वेणी लगी हुई थी । वे अपने ह्रदय में राम जी के गुण समूहों का सुमिरण करती रहती थीं ।

 

सीताजी अपने नेत्रों को अपने पैरों की ओर ही लगाए थीं । और मन भगवान श्रीराम के चरण कमलों में लीन था । सीताजी को दुखी देखकर हनुमानजी को बड़ा दुख हुआ ।

 

हनुमान जी महाराज अशोक वाटिका में पहुँचकर पेड़ के पल्लव (पत्तों के समूह-झुरमुट) में अपने को छिपा लिए थे । और विचारकर रहे थे कि क्या करूँ । अर्थात सीता जी के सामने जाऊं अथवा पहले मुँदरी गिराकर फिर बाद में परिचय करूँ ।

 

इसी समय बहुत सी नारियों के साथ, राजसी ठाठ से रावण वहाँ आया । उसने सीता जी जी को अनेक तरह से समझाया । साम, दान भय और भेद का भी सहारा लिया । रावण ने कहा कि हे वुद्धिमती, सुमिखी सीता मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मंदोदरी आदि सभी रानियों को आपकी दासी बना दूँगा बस एक बार आप मुझे ‘विलोकि’ लीजिए-

 

‘तव अनुचरी करउँ पन मोरा । एक बार विलोकु मम ओरा’ ।।

 

 

जब सीता जी ने गंगा जी को प्रणाम करके आशीर्वाद माँगा था तो गंगा जी कहा कि हे रघुवीर प्रिय वैदेही आपका प्रभाव किसे पता नहीं है । जिसे एक बार आप विलोकि लेती हैं वह लोकपाल हो जाता है । सारी सिद्धियाँ हाँथ जोड़कर आपकी सेवा में रहती  हैं ।

 

‘लोकप होहिं विलोकत तोरे तोहिं सेवत सब सिधि कर जोरे ।।

 

रावण जब सीता जी का हरण करने के लिए पंचवटी गया था तो सीताजी को देखकर वह पहचान गया था कि ये तो जगतजननी हैं । इसलिए उसने मन ही मन सीता जी के चरण कमलों की वंदना की थी--‘मन महुं चरन वंदि सुख माना’ सीताजी के विलोकने मात्र से उसे विशिष्ट लोक की प्राप्ति हो जाती, उसके पाप क्षीण हो जाते और वह अवध्य हो जाता ।

 

तिनके की ओट करके परम स्नेही भगवान श्रीरामजी का सुमिरन करके सीता जी ने कहा कि हे रावण तू ऐसा क्यों नहीं समझ पाता कि नलिनी कभी जुगनूँ के प्रकाश से विकसित नहीं होती । उसे सूर्य का प्रकाश चाहिए होता है । अरे दुष्ट ! क्या रघुवीर राम जी के वाणों का प्रताप तुझे याद नहीं है (मारीच ने रामजी के वाणों का प्रताप रावण को सुनाया था ) । सीताजी ने कहा कि सूने से (रामजी और लक्ष्मणजी की अनुपस्थिति में चोरी से ) तूने मेरा हरण करके यहाँ ले आया है । हे अधम, निलज्ज तुझको इसपर (इस नीचता पर) लज्जा नहीं आती ।

 

अपने को जुगनूँ के समान और राम जी को सूर्य के समान सुनकर, तथा सीता जी के अन्य कठोर वचनों को सुनकर रावण बहुत ही खिसिया गया और तलवार निकालकर बोला कि सीता तुम मेरा अपमान कर रही हो और इसलिए इस कठिन (तीक्ष्ण) कृपाण से मैं तुम्हारा सिर काट डालूँगा । या तो मेरी बात मान लो अथवा तुम्हें अपने प्राण गवाँने पड़ेंगे ।

 

सीताजी ने कहा कि रावण  भगवान श्रीराम की भुजाएँ नीले कमल की रस्सी की भाँति बहुत सुंदर हैं । और हाथी के सूंड की तरह पुष्ट, लम्बी और मजबूत हैं । हे मूर्ख सुन ! या तो राम जी की भुजाएँ मेरे कंठ को स्पर्श करेंगी अथवा तेरी यह कठिन कृपाण- मेरी यह अटल प्रतिज्ञा है ।

सीता जी ने चन्द्रहास कृपाण से कहा कि राम जी के विरह रुपी अग्नि से जलने के परिताप को आप मिटा दीजिए । आपकी श्रेष्ठ धार तीक्ष्ण और सीतल है आप मेरे बड़े भारी दुख को दूर कर दीजिए । सीता जी के ऐसे वचनों को सुनकर रावण मारने के लिए दौड़ा, तब मंदोदरी ने नीति युक्त बाते कहकर उसे रोक दिया । तब रावण ने सभी राक्षसियों को बुलाकर कहा कि तुम लोग सीता को  तरह-तरह से भयभीति करो । यदि इन्होंने एक महीने में मेरा कहना नहीं माना तो फिर मैं अपनी कृपाण निकालकर इन्हें मार डालूँगा ।

 

रावण राक्षसियों को ऐसा आदेश देकर महल को चला गया । पिचासनियों के समूह तरह-तरह  के रूप बना-बनाकर सीता जी को डराने लगीं । हनुमानजी महाराज मन ही मन सोच रहे थे कि किस प्रकार माताजी से परिचय किया जाय । एक बार तो उनके मन में राक्षसियों को दंडित करने का बिचार आया लेकिन इससे सीताजी को रामजी का संदेश सुनाने में बांधा आ सकती थी इसलिए हनुमानजी ने इस बिचार को त्याग दिया । 


ग्रंथों में ऐसा भी वर्णन मिलता है कि रावण को भी स्वप्न से यह पता चल गया था कि हनुमानजी अशोक वाटिका में आ गए हैं इसलिए ही रावण सीताजी से सम्वाद करने आया, उनसे अशोभनीय बातें किया और उन्हें तलवार लेकर मारने दौड़ा और पिचासनियों को सीताजी को परेशान  करने के लिए बोल कर गया जिससे हनुमानजी जाकर रामजी से ये सब बताएं और रामजी जल्दी आकर उसका वध कर दें 

 

। जय श्रीराम 

। जय हनुमानजी 

Saturday, September 6, 2025

सुन्दरकाण्ड-१२-हनुमान जी और विभीषण का संवाद और हनुमानजी का अशोकवाटिका के लिए प्रस्थान

 

हनुमान जी ने बिप्र का रूप बनाकर राम-राम कहा और सुनते ही विभीषण जी उठकर दौड़ते हुए आए और प्रणाम करके उनकी कुशल पूछा और कहा कि आप अपनी कथा सुनाइए । विभीषण जी ने कहा कि मेरे ह्रदय में बहुत प्रेम उमड़ रहा है इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप या तो भगवान के भक्तों में से कोई हैं अथवा आप दीनों से सहज ही प्रेम करने वाले दीनानुरागी साक्षात भगवान श्रीराम ही हैं जो अपनी ओर से मुझे बड़भागी बनाने के लिए चले आए हो ।

 

विभीषण जी के ऐसा कहने पर हनुमान जी ने अपना नाम बताया और राम जी की कथा सुनाई । भक्त भगवान की ही कथा सुनते-सुनाते हैं, अपनी अथवा किसी और की नहीं । सुनकर और सुनाकर दोंनो लोग के तन और मन पुलकित हो गए और राम जी के गुणों को याद करके आनन्दित हो गए ।

फिर विभीषण जी हनुमान जी से बोले कि हे पवनपुत्र मेरी रहनी सुनिए कि लंका में मैं किस प्रकार रहता हूँ । मैं लंका में ठीक वैसे ही रहता हूँ जैसे बत्तीस दांतों के बीच में जिह्वा रहती है । कब कौन सा दाँत जीभ को काट दे पता नहीं होता । और जीभ दांतों को तो काट नहीं सकती । वह बस चाट सकती है । जब दाँत में दर्द हो अथवा कुछ फस जाय तो जीभ उसे सहलाती रहती है । लेकिन दाँत मौका मिलते ही जीभ को भी चबा लेते हैं ।

हे तात क्या कभी मुझको अनाथ जानकर रघुकुल के नाथ श्रीराम जी मेरे ऊपर कृपा करेंगे । क्योंकि मेरा शरीर तामसी है और मेरे पास कोई भी साधन जैसे पूजा, जप, तप आदि नहीं है । और न ही रामजी के चरण कमलों में प्रेम ही है ।

 फिर विभीषण जी ने कहा कि अब मुझे विश्वास हो गया है कि बिना राम जी की कृपा के साधु जन से मिलना नहीं होता । राम जी ने मेरे ऊपर कृपा की है तभी तो आप अपनी ओर से मुझे दर्शन देने चले आए ।

हनुमान जी ने विभीषण जी को समझाते हुए कहा कि विभीषण जी  राम जी की रीति सुनिए । राम जी सदा अपने सेवक से प्रेम करते हैं । यह उनकी रीति और सेवक से प्रीति है ।  आप अपने मन को छोटा न कीजिए । मेरी ओर देखिए । मैं ही कहाँ बहुत कुलीन हूँ । बानर हूँ । और स्वभाव से ही चंचल हूँ और हर प्रकार से हीन हूँ । मतलब कोई योग्य नहीं हूँ । इतना ही नहीं कोई सुबह नाम भी ले ले तो उसे उस दिन आहार नहीं मिलता । मैं ऐसा अधम हूँ फिर भी मुझ पर भी रघुवीर राम जी की कृपा हुई है । राम जी की कृपा और गुण को याद करके हनुमान जी के आँखों में आँसू भर आए ।

 

वानर और भालुओं को बिकारी समझा जाता है । राम जी से पहले किसी ने बानर-भालुओं से ऐसा प्रेम नहीं किया था । ऐसा सम्मान नहीं दिया था । राम जी ने सबको अपना लिया, मित्र बना लिया, गले से लगा लिया । इसलिए विभीषण जी को समझाते हुए उनको बल देने के लिए हनुमान जी ने ऐसा कहा कि दीनता और हीनता भगवत प्राप्ति में बाधक नहीं हैं । राम जी तो दीन-हीन पर विशेष कृपा करते हैं ।

हनुमान जी ने कहा कि सहज कृपालु ऐसे स्वामी को जो लोग भूल कर संसार में भ्रमते हैं यदि वे दुखी रहें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । इस प्रकार राम जी के गुण समूहों को कहते हुए हनुमान जी को अपार-अलौकिक विश्राम-आनंद प्राप्त हुआ ।

फिर विभीषण जी ने सारी कथा कह सुनाई जिस प्रकार से सीता जी  अशोक वाटिका में रह रही थीं । तब हनुमान जी ने कहा कि हे भाई विभीषण अब मैं सीता माता का दर्शन करना चाहता हूँ । विभीषण जी ने सारी युक्ति बताई और हनुमान जी महाराज विभीषण जी से विदा लेकर चल दिए । हनुमान जी महाराज ने फिर से वही छोटा सा आकर बना कर अशोक वन में, जहाँ सीता जी थीं, चले गए ।

 

।। जय श्रीराम ।।

। जय श्रीहनुमान ।।


Monday, August 4, 2025

सुन्दरकाण्ड-११-हनुमान जी का लंका में विभीषणजी से भेंट करने के लिए निश्चय करना

 

हनुमानजी महाराज मन ही मन श्री रघुनाथ जी का ध्यान करके  पं. राधेश्याम जी के शब्दों में निम्न प्रकार से विनती करने लगे -

       

श्रीराम जय राम जय जय राम ।

श्रीराम जय राम जय जय राम ।।

मेरा बल बुद्धि पराक्रम आए तनिक न काम ।

अपने बल से कार्य अब पूर्ण करा लो राम ।।

भटक अँधेरे में रहा स्वामी हो निराश अविराम ।

दो प्रकाश मुझ दास को हे रविकुल रवि राम ।।


  इतना कहते ही उन्हें एक घर दिखाई पड़ा जो बहुत ही सुंदर लग रहा था । और वहाँ अलग से एक हरि मन्दिर बना हुआ था । घर में रामजी के आयुध धनुष और वाण आदि अंकित थे घर की शोभा कही नहीं जा सकती है । नए-नए तुलसी पौधों के समूह थे जिन्हें देखकर हनुमान जी महाराज बहुत ही हर्षित हुए ।


उपरोक्त लक्षण सज्जन के घर के लक्षण थे । लेकिन लंका में तो राक्षसों का ही निवास था । इसलिए यह स्वाभाविक प्रश्न था कि राक्षसों के बीच में सज्जन कैसे रह सकता है । क्या यह सच है अथवा दिखावा है, धोखा है ।

 

  हनुमान जी मन में ऐसा तर्क करने लगे । इसी बीच में विभीषण जी जाग उठे । सुबह का समय था और सज्जन सुबह तड़के ही यानी व्रह्म मुहूर्त में ही जगते हैं । दूसरे सज्जन जगते ही अपने ईष्ट का ध्यान यानी सुमिरण करते हैं । और विभीषण जी भी जगते ही राम-राम कहा जिससे हनुमान जी को हर्ष हुआ और उन्हें निश्चय हो गया कि यह सज्जन है । सज्जन का मतलब भक्त ह्रदय । जो राम जी का है वही सज्जन है ।

  सज्जन व्यक्ति से हर किसी का भला ही होता है । भला न भी हो तो बुरा तो कभी होता ही नहीं । इसलिए हनुमान जी ने सोचा कि इनसे जरूर जान-पहचान करूँगा यानी मिलूँगा क्योंकि सज्जन व्यक्ति से कोई हानि नहीं होती है । यदि वह किसी का कोई काम नहीं बना सकता तो बिगाड़ता भी नहीं ।

 

। जय श्रीराम 

। जय हनुमान 

Thursday, July 10, 2025

सुन्दरकाण्ड-१०-हनुमान जी का लंका में प्रवेश और सीताजी कि खोज करना

 

जब लंकिनी ने हनुमानजी से कहा कि अब आप जिस कार्य के लिए आए हैं उसे भगवान श्रीराम को ह्रदय में धारण करके और लंका में प्रवेश करके पूर्ण कीजिए । तब हनुमान जी महाराज बहुत ही सूक्ष्म रूप बनाकर और राम जी का सुमिरण करके लंका में प्रवेश कर गए ।

 

हनुमानजी ने प्रत्येक मन्दिर में सीता जी को खोजा । उन्हें जहाँ-तहाँ अनेकों योद्धा दिखाई पड़े । इसी क्रम में सीता जी को खोजते हुए हनुमानजी रावण के मन्दिर में गये जो बहुत ही विचित्र थी, जिसका वर्णन नहीं हो सकता । रावण वहाँ सो रहा था और मन्दिर में सीता जी नहीं थीं ।

 

हनुमान जी ने इस प्रकार सभी मंदिरों में जा-जाकर सीता जी को खोजा । हनुमानजी ने लंका के मंदिरों-घरों सभी जगह सीताजी को खोजा लेकिन सीताजी कहीं नहीं मिलीं ।

 

 दरअसल लंका में केवल विभीषण जी ही घर में रहते थे और घर से अलग थोड़ी दूर पर मंदिर था जिसमें विभीषण जी पूजा-पाठ-ध्यान करते थे । लेकिन विभीषण जी भक्त थे तो वे मंदिर को घर कैसे बना लेते ? क्योंकि मंदिर मूलतः भगवान के लिए होता है । इसके विपरीत रावणादि आदि बड़े-बड़े राक्षस मंदिर को ही घर बना लिए थे और उसी में रहते थे । लंका में अधिकांश ढाँचे मंदिरनुमा ही थे । जहाँ पर्वत के उपर रावण का अखाड़ा था । वह महल भी मंदिरनुमा ही था- बैठ जाय तेहिं मंदिर रावन । लागे किंनर गुन गन गावन ।।

 

जब सीता जी का कहीं पता नहीं चला तो हनुमान जी थोड़ा सा सोच में पड़ गए कि अब क्या करूँ ? और राम जी से मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि हे राघव ! अब यह कार्य आप पूर्ण करा लीजिए ।

 

 

।। जय श्रीराम ।।

।जय श्रीहनुमान ।।

 

Tuesday, July 1, 2025

सुन्दरकाण्ड-९- रामजी के सच्चे भक्तों के सभी कष्ट मिट जाते हैं और असंभव भी संभव हो जाता है

 

कागभुशुंडि जी पक्षिराज गरुण को श्रीरामकथा सुनाते हुए कहते हैं कि जिस पर रघुनाथ जी की कृपा दृष्टि होती है उसके लिए जहर अमृततुल्य, शत्रु मित्रतुल्य, समुंद्र गोपदतुल्य और अग्नि सीतलता युक्त हो जाती है । और विशाल सुमेरु पर्वत धूल के समान हो जाता है ।

 

 अर्थात वह बड़ी-बड़ी बाधाओं को आसानी से पार कर जाता है । वह बड़े पर्वत को धूल की भांति उड़ा सकता है,  उस पर आसानी से चढ़ सकता है । पार कर सकता है । समुंद्र उसके लिए छोटे गड्ढे की तरह जैसे गाय का पैर जमीन में पड़ने से जो छोटा सा गड्ढा बनता है उसके समान हो जाता है । जहर उसे अमृत के समान फलदायी हो जाता है । शत्रु मित्रवत व्यवहार करने लगता है । और अग्नि उसे जलाती नहीं है बल्कि अपने गुण के विपरीति उसे शीतलता प्रदान करती है ।

 

हनुमान जी ने अभी सापों की माता के मुँह में जाकर बाहर आ गए हैं । उनके विष का इनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ । उल्टे इन्हें ढेर सारा आशीर्वाद मिला । लंकिनी शत्रु थी । लेकिन वह भी मित्रवत हो गई । पर्वत पर चढ़ना और उसे पैर से दबा देना हनुमान जी के लिए धूल की छोटी ढेरी पर चढ़ने और उसे दबा देने के समान ही है । इतनी बातें यात्रा के दौरान अब तक घटित हो चुकी हैं । 

 

उपरोक्त प्रसंग में अग्नि का भी वर्णन आया है लेकिन अभी तक यात्रा में हनुमानजी का अग्नि का सामना नहीं हुआ है । इसलिए यहाँ यह संकेत मिल रहा कि अग्नि से सामना होने पर भी अग्नि हनुमान जी को जलाएगी नहीं उल्टे शीतलता प्रदान करेगी ।


इस प्रकार रामजी के सच्चे भक्तों के सभी कष्ट मिट जाते हैं और असंभव से लगना वाला कार्य भी संभव हो जाता है 

 

                         

।। महावीर हनुमान जी की जय ।

Tuesday, June 10, 2025

सुन्दरकाण्ड-८- लंकिनी का अपने पुण्य उदय होने की बात कहना और सत्संग की महिमा बताना


हनुमान जी के कोटि के साधु-भक्त के सत्संग की, स्पर्श की बहुत महिमा होती है । हनुमानजी के स्पर्श से लंकिनी के मति के पट खुल गए और बोली हे तात मेरा कोई बहुत बड़ा पुण्य उदय हुआ है जिससे आज मैंने अपनी आँखों से  रामजी के दूत-राम दूत हनुमान  का दर्शन प्राप्त किया है ।

 

लंकिनी बोली हे तात यदि सत्संग के एक क्षण के सुख को तराजू के एक पलड़े पर और तराजू के दूसरे पलड़े पर स्वर्ग और अपबर्ग (मोक्ष) के सारे सुख को रख दिया जाय तो पहला पलड़ा ही भारी होगा । 

 

यहाँ यह ध्यान देना बहुत जरूरी है कि जिसके माध्यम से सत्संग मिल रही है उसका स्तर क्या है ? यदि हनुमानजी महाराज जी की कोटि के संत और भक्त के माध्यम से सत्संगत मिलता है तभी उपरोक्त बातें सत्य होती हैं ।

 

 हनुमानजी महराज के सत्संग से राक्षसी लंकिनी का भी विवेक जागृत हो गया ।  और उसे स्वर्ग और मोक्ष के सुख की अपेक्षा हृदय में कोशलपुर के राजा रामजी को हृदय में धारण करने का सुख श्रेष्ठत लगने लगा । 

 

इसप्रकार कहा जा सकता है कि सत्संग में श्रोता और वक्ता दोनों का स्तर महत्वपूर्ण होता है लेकिन इस घटना से पता चलता है कि वक्ता का स्तर श्रेष्ठ होना ज्यादा जरूरी है । 

 

लंकिनी कहने लगी कि अब आप कौशलपुर के राजा रघुनाथ जी को हृदय में धारण करके लंका में प्रवेश करके सारे कार्य आप पूर्ण कीजिए ।

 

।। महावीर हनुमान जी की जय ।।

  

Sunday, June 1, 2025

सुन्दरकाण्ड-७- हनुमानजी का लंका में प्रवेश करना और लंकिनी को दंडित किया जाना

 

हनुमान जी महाराज बहुत ही सूक्ष्म आकार बनाकर और राम जी का सुमिरण करके लंका में प्रवेश करने के लिए चल दिए । लंकिनी नाम की एक राक्षसी थी जिसने अति सूक्ष्म रूप में भी हनुमान जी को देख लिया और बोली कि मेरा निरादर करके कहाँ चोरी से (चुपके-चुपके) चले जा रहे हो ।

 

अरे मूर्ख तुमको मेरा भेद मालुम नहीं है । जितने भी चोर हैं वे सब मेरा भोजन हैं । अर्थात तुम भी मेरा भोजन हो ।

 

  हनुमान जी महाराज लंकिनी को दंडित करने के लिए विशाल रूप में आ गए  । और उसे एक मुक्का मारा । जिससे वह खून की उल्टी करती हुई ढुनुमुनी खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ी ।


फिर संभल कर उठी और हाथ जोड़कर संकित होकर विनयपूर्वक  बोली- जब व्रह्मा जी ने रावण को वरदान दिया था तो चलते समय मुझे पहचानकर कहा था कि जब तुम एक बंदर के मारने से बिकल हो जाओगी तब समझ लेना कि राक्षसों के अंत का समय आ चुका है ।

 

इस  प्रकार ब्रह्मा जी के वरदान को स्मरण करके लंकिनी हनुमानजी महाराज को पहचान गई और यह भी जान गई कि अब रावण आदि राक्षसों के अंत का समय आ गया है ।

 

।। महावीर हनुमान जी की जय ।।

 

Sunday, May 25, 2025

सुन्दरकाण्ड-६- हनुमानजी द्वारा लंका नगरी का निरीक्षण करना

 

समुंद्र के उस पार वन था । हनुमान जी ने उसकी सुंदरता को देखा । वहाँ मधु के लोभ में भौरें गुंजायमान थे । तरह- तरह के पेड़, फल और फूल सुंदर लग रहे थे । पक्षियों और मृगों (पशुओं) के समूह हनुमान जी के मन को अच्छे लगे । हनुमान जी ने सामने एक बड़ा पर्वत देखा और उस पर बिना किसी डर के दौड़ते हुए चढ़ गए ।

 

शंकर जी श्रीरामचरितमानस जी की कथा सुनाते हुए पार्वती जी से कहने लगे कि हे उमा यह हनुमान जी की उपलब्धि नहीं है । यह तो राम जी के प्रताप की महिमा है जो काल को भी अपना ग्रास बना लेता है । अर्थात हनुमान जी ने जो भी किया वह सब राम जी के प्रताप से ही हुआ है । क्योंकि इतना साहसी, दुर्गम और बल तथा बुद्धिमतापूर्ण कृत कार्य करना वानर के लिए सहज नहीं है । यह तो राम जी के कृपा से ही संभव है ।

 

हनुमान जी ने उस पर्वत पर चढ़कर लंका को देखा । निरीक्षण किया । लंका ऐसा अद्भुत दुर्ग था जिसका वर्णन नहीं हो सकता । दुर्ग बहुत ही ऊँचा था तथा इसके चारो ओर समुंद्र का जल था । सोने के कोट थे जिनका अद्भुत प्रकाश था । कोट पर  मणियाँ जड़ी थी जिनकी बहुत अधिक सुंदरता थी ।

 

 लंका दुर्गम नगरी थी ।  एक तो समुंद्र के बीच में थी ।  फिर दुर्ग के बाहर बड़ी ऊँची दीवार  और फिर उसके बाहर गहरी-गहरी खाईं थी ।  कहते हैं भोगावती नगरी है जिसमें सापों का वास है और अमरावती में देवताओं का वास है और ये नगरियाँ बहुत ही सुंदर हैं ।  लेकिन लंका इनसे भी कहीं अधिक सुंदर व श्रेष्ठ थी ।  


भोगावति जस अहिकुल वासा ।

अमरावति जस सक्र निवासा ।।

तेहि ते  अधिक   रम्य अति बंका ।

जग विख्यात नाम तेहिं लंका ।।

 

इसमें वन, उपवन, वाटिका और बगीचे थे । सुंदर घर, एक दूसरे को काटती सड़के, गलियाँ व बाजार था, नगर का निर्माण विविधि तरीके से हुआ था ।  पानी के समुचित साधन जैसे कूप, तालाब और बावड़ी आदि थे ।  नगरी में सुरक्षा बहुत थी । बड़े-बड़े राक्षसों से रक्षित थी ।

                                        

अनेकों हाथी, घोड़े और खच्चर थे । पैदल और रथी सेना का समूह था । अनेकों रूप में बलवान सेना की टुकडियाँ थीं जिनका वर्णन नहीं हो सकता । कहीं बड़े-बड़े मल्ल गर्जना कर रहे थे और योद्धा अखाड़ों में लड़ रहे थे तो कहीं राक्षस गाय, भैंस, गधों, बकरियों आदि का भक्षण कर रहे थे । नाना तरीके से बिकट शरीर वाले योद्धा चारों दिशाओं से नगरी की रक्षा कर रहे थे ।


 हनुमान जी ने देखा कि लंका नगरी में अनेकों रक्षक हैं जो चारों दिशाओं से नगरी की रक्षा कर रहे हैं ।  इसलिए हनुमान जी ने मन में बिचार किया कि छोटा सा रूप बनाकर रात में नगरी में प्रवेश कर जाऊँ । इस प्रकार पर्वत से ही लंका को भली भांति देखकर, बिचार करके हनुमान जी ने बहुत ही सूक्ष्म आकार बनाकर और राम जी का सुमिरण करके लंका की ओर (लंका में प्रवेश करने के लिए) चल दिए ।

                            

  ।। महावीर हनुमान जी महाराज की जय ।।

Friday, April 18, 2025

सुन्दरकाण्ड-५- हनुमानजी द्वारा सिहिंका राक्षसी का वध और समुंद्र के पार जाना

 

सिंहिका नाम की एक राक्षसी थी जिसने समुंद्र के जल में ही अपना निवास बना रखा था वह माया से आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को पकड़ लेती थी जो भी जीव अथवा जंतु आकाश मार्ग से समुंद्र के ऊपर से उड़ते थे उनकी छाया (प्रतिबिम्ब) जल में पड़ती थी जिसे देखकर वह छाया को ही पकड़ लिया करती थी वह जिसकी भी छाया पकड़ती थी उसकी गति आकाश में रुक जाती थी और इस प्रकार सदा आकाश मार्ग से चलने वाले जीवों को वह खा जाया करती थी  

शास्त्रों में इसी सिंहिका को राहु की माता बताया गया है । हनुमान जी महाराज जब सुरसा जी (जो सापों की माता थीं ) से वरदान पाकर आगे चले तो राहु माता सिंहिका  हनुमानजी को अपनी माया से पकड़कर अपना ग्रास बनाना चाहती थी ।


इसलिए राक्षसी सिंहिका ने छाया के जरिए पकड़ने का छल हनुमान जी के साथ भी किया उसने हनुमानजी की छाया, जो समुंद्र के जल में पड़ रही थी, पकड़ लिया । और हनुमानजी की गति अवरुद्ध हो गई ।


लेकिन हनुमान जी उसका कपट तुरंत पहचान गए अर्थात हनुमान जी को पता चल गया कि राक्षसी ने मेरी गति को रोक दिया है और मुझे खा जाना चाहती है

 

हनुमानजी ऊपर उड़ रहे थे और सिंहिका ने हनुमानजी की छाया पकड़कर उन्हें नीचे ले आई । हनुमानजी ने सिंहिका का वध करना ही उचित समझा । इसलिए पवन के पुत्र वीर और मतिधीर हनुमान जी ने उसे मार कर समुंद्र के उस पार पहुँच गए


ताहिं मारि मारुतसुत वीरा । वारिधि पार गयेउ मतिधीरा ।।


।। महावीर हनुमान जी की जय ।।


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सुन्दरकाण्ड-१४ - त्रिजटा का स्वप्न और हनुमान जी का अशोक वृक्ष से मुँदरी गिरना

  लंका में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी रहती थी । जिसे रावण ने अशोक वाटिका में सीताजी की रखवाली में लगा रखा था । त्रिजटा निपुण बुद्धि वाली थी ।...

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