राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Tuesday, June 10, 2025

सुन्दरकाण्ड-८- लंकिनी का अपने पुण्य उदय होने की बात कहना और सत्संग की महिमा बताना


हनुमान जी के कोटि के साधु-भक्त के सत्संग की, स्पर्श की बहुत महिमा होती है । हनुमानजी के स्पर्श से लंकिनी के मति के पट खुल गए और बोली हे तात मेरा कोई बहुत बड़ा पुण्य उदय हुआ है जिससे आज मैंने अपनी आँखों से  रामजी के दूत-राम दूत हनुमान  का दर्शन प्राप्त किया है ।

 

लंकिनी बोली हे तात यदि सत्संग के एक क्षण के सुख को तराजू के एक पलड़े पर और तराजू के दूसरे पलड़े पर स्वर्ग और अपबर्ग (मोक्ष) के सारे सुख को रख दिया जाय तो पहला पलड़ा ही भारी होगा । 

 

यहाँ यह ध्यान देना बहुत जरूरी है कि जिसके माध्यम से सत्संग मिल रही है उसका स्तर क्या है ? यदि हनुमानजी महाराज जी की कोटि के संत और भक्त के माध्यम से सत्संगत मिलता है तभी उपरोक्त बातें सत्य होती हैं ।

 

 हनुमानजी महराज के सत्संग से राक्षसी लंकिनी का भी विवेक जागृत हो गया ।  और उसे स्वर्ग और मोक्ष के सुख की अपेक्षा हृदय में कोशलपुर के राजा रामजी को हृदय में धारण करने का सुख श्रेष्ठत लगने लगा । 

 

इसप्रकार कहा जा सकता है कि सत्संग में श्रोता और वक्ता दोनों का स्तर महत्वपूर्ण होता है लेकिन इस घटना से पता चलता है कि वक्ता का स्तर श्रेष्ठ होना ज्यादा जरूरी है । 

 

लंकिनी कहने लगी कि अब आप कौशलपुर के राजा रघुनाथ जी को हृदय में धारण करके लंका में प्रवेश करके सारे कार्य आप पूर्ण कीजिए ।

 

।। महावीर हनुमान जी की जय ।।

  

Sunday, June 1, 2025

सुन्दरकाण्ड-७- हनुमानजी का लंका में प्रवेश करना और लंकिनी को दंडित किया जाना

 

हनुमान जी महाराज बहुत ही सूक्ष्म आकार बनाकर और राम जी का सुमिरण करके लंका में प्रवेश करने के लिए चल दिए । लंकिनी नाम की एक राक्षसी थी जिसने अति सूक्ष्म रूप में भी हनुमान जी को देख लिया और बोली कि मेरा निरादर करके कहाँ चोरी से (चुपके-चुपके) चले जा रहे हो ।

 

अरे मूर्ख तुमको मेरा भेद मालुम नहीं है । जितने भी चोर हैं वे सब मेरा भोजन हैं । अर्थात तुम भी मेरा भोजन हो ।

 

  हनुमान जी महाराज लंकिनी को दंडित करने के लिए विशाल रूप में आ गए  । और उसे एक मुक्का मारा । जिससे वह खून की उल्टी करती हुई ढुनुमुनी खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ी ।


फिर संभल कर उठी और हाथ जोड़कर संकित होकर विनयपूर्वक  बोली- जब व्रह्मा जी ने रावण को वरदान दिया था तो चलते समय मुझे पहचानकर कहा था कि जब तुम एक बंदर के मारने से बिकल हो जाओगी तब समझ लेना कि राक्षसों के अंत का समय आ चुका है ।

 

इस  प्रकार ब्रह्मा जी के वरदान को स्मरण करके लंकिनी हनुमानजी महाराज को पहचान गई और यह भी जान गई कि अब रावण आदि राक्षसों के अंत का समय आ गया है ।

 

।। महावीर हनुमान जी की जय ।।

 

Sunday, May 25, 2025

सुन्दरकाण्ड-६- हनुमानजी द्वारा लंका नगरी का निरीक्षण करना

 

समुंद्र के उस पार वन था । हनुमान जी ने उसकी सुंदरता को देखा । वहाँ मधु के लोभ में भौरें गुंजायमान थे । तरह- तरह के पेड़, फल और फूल सुंदर लग रहे थे । पक्षियों और मृगों (पशुओं) के समूह हनुमान जी के मन को अच्छे लगे । हनुमान जी ने सामने एक बड़ा पर्वत देखा और उस पर बिना किसी डर के दौड़ते हुए चढ़ गए ।

 

शंकर जी श्रीरामचरितमानस जी की कथा सुनाते हुए पार्वती जी से कहने लगे कि हे उमा यह हनुमान जी की उपलब्धि नहीं है । यह तो राम जी के प्रताप की महिमा है जो काल को भी अपना ग्रास बना लेता है । अर्थात हनुमान जी ने जो भी किया वह सब राम जी के प्रताप से ही हुआ है । क्योंकि इतना साहसी, दुर्गम और बल तथा बुद्धिमतापूर्ण कृत कार्य करना वानर के लिए सहज नहीं है । यह तो राम जी के कृपा से ही संभव है ।

 

हनुमान जी ने उस पर्वत पर चढ़कर लंका को देखा । निरीक्षण किया । लंका ऐसा अद्भुत दुर्ग था जिसका वर्णन नहीं हो सकता । दुर्ग बहुत ही ऊँचा था तथा इसके चारो ओर समुंद्र का जल था । सोने के कोट थे जिनका अद्भुत प्रकाश था । कोट पर  मणियाँ जड़ी थी जिनकी बहुत अधिक सुंदरता थी ।

 

 लंका दुर्गम नगरी थी ।  एक तो समुंद्र के बीच में थी ।  फिर दुर्ग के बाहर बड़ी ऊँची दीवार  और फिर उसके बाहर गहरी-गहरी खाईं थी ।  कहते हैं भोगावती नगरी है जिसमें सापों का वास है और अमरावती में देवताओं का वास है और ये नगरियाँ बहुत ही सुंदर हैं ।  लेकिन लंका इनसे भी कहीं अधिक सुंदर व श्रेष्ठ थी ।  


भोगावति जस अहिकुल वासा ।

अमरावति जस सक्र निवासा ।।

तेहि ते  अधिक   रम्य अति बंका ।

जग विख्यात नाम तेहिं लंका ।।

 

इसमें वन, उपवन, वाटिका और बगीचे थे । सुंदर घर, एक दूसरे को काटती सड़के, गलियाँ व बाजार था, नगर का निर्माण विविधि तरीके से हुआ था ।  पानी के समुचित साधन जैसे कूप, तालाब और बावड़ी आदि थे ।  नगरी में सुरक्षा बहुत थी । बड़े-बड़े राक्षसों से रक्षित थी ।

                                        

अनेकों हाथी, घोड़े और खच्चर थे । पैदल और रथी सेना का समूह था । अनेकों रूप में बलवान सेना की टुकडियाँ थीं जिनका वर्णन नहीं हो सकता । कहीं बड़े-बड़े मल्ल गर्जना कर रहे थे और योद्धा अखाड़ों में लड़ रहे थे तो कहीं राक्षस गाय, भैंस, गधों, बकरियों आदि का भक्षण कर रहे थे । नाना तरीके से बिकट शरीर वाले योद्धा चारों दिशाओं से नगरी की रक्षा कर रहे थे ।


 हनुमान जी ने देखा कि लंका नगरी में अनेकों रक्षक हैं जो चारों दिशाओं से नगरी की रक्षा कर रहे हैं ।  इसलिए हनुमान जी ने मन में बिचार किया कि छोटा सा रूप बनाकर रात में नगरी में प्रवेश कर जाऊँ । इस प्रकार पर्वत से ही लंका को भली भांति देखकर, बिचार करके हनुमान जी ने बहुत ही सूक्ष्म आकार बनाकर और राम जी का सुमिरण करके लंका की ओर (लंका में प्रवेश करने के लिए) चल दिए ।

                            

  ।। महावीर हनुमान जी महाराज की जय ।।

Friday, April 18, 2025

सुन्दरकाण्ड-५- हनुमानजी द्वारा सिहिंका राक्षसी का वध और समुंद्र के पार जाना

 

सिंहिका नाम की एक राक्षसी थी जिसने समुंद्र के जल में ही अपना निवास बना रखा था वह माया से आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को पकड़ लेती थी जो भी जीव अथवा जंतु आकाश मार्ग से समुंद्र के ऊपर से उड़ते थे उनकी छाया (प्रतिबिम्ब) जल में पड़ती थी जिसे देखकर वह छाया को ही पकड़ लिया करती थी वह जिसकी भी छाया पकड़ती थी उसकी गति आकाश में रुक जाती थी और इस प्रकार सदा आकाश मार्ग से चलने वाले जीवों को वह खा जाया करती थी  

शास्त्रों में इसी सिंहिका को राहु की माता बताया गया है । हनुमान जी महाराज जब सुरसा जी (जो सापों की माता थीं ) से वरदान पाकर आगे चले तो राहु माता सिंहिका  हनुमानजी को अपनी माया से पकड़कर अपना ग्रास बनाना चाहती थी ।


इसलिए राक्षसी सिंहिका ने छाया के जरिए पकड़ने का छल हनुमान जी के साथ भी किया उसने हनुमानजी की छाया, जो समुंद्र के जल में पड़ रही थी, पकड़ लिया । और हनुमानजी की गति अवरुद्ध हो गई ।


लेकिन हनुमान जी उसका कपट तुरंत पहचान गए अर्थात हनुमान जी को पता चल गया कि राक्षसी ने मेरी गति को रोक दिया है और मुझे खा जाना चाहती है

 

हनुमानजी ऊपर उड़ रहे थे और सिंहिका ने हनुमानजी की छाया पकड़कर उन्हें नीचे ले आई । हनुमानजी ने सिंहिका का वध करना ही उचित समझा । इसलिए पवन के पुत्र वीर और मतिधीर हनुमान जी ने उसे मार कर समुंद्र के उस पार पहुँच गए


ताहिं मारि मारुतसुत वीरा । वारिधि पार गयेउ मतिधीरा ।।


।। महावीर हनुमान जी की जय ।।


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