लंका में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी रहती थी । जिसे
रावण ने अशोक वाटिका में सीताजी की रखवाली में लगा रखा था । त्रिजटा निपुण बुद्धि
वाली थी । और उसे राम जी के चरणों में अनुराग था । उसने सभी राक्षसियों को बुलाकर
कहा कि सीता जी की सेवा करके अपना हित साधन कीजिए । क्योंकि मैंने एक सपना देखा है
जिसमें एक बानर ने लंका को जला दिया है और सारी राक्षसी सेना का संहार कर दिया है ।
रावण गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है और उसकी बीसों भुजाएँ कटी हुई
हैं तथा सिर मुड़ा (केश रहित है ) हुआ है । और लंका का राज्य मानो विभीषण को मिल
गया है ।
सारे
राज्य में राम जी के विजय का डंका बज रहा है और इसके बाद राम जी ने सीता जी को
लंका से वापस अपने पास बुलवा लिया है । मैं जोर से कह रहीं हूँ कि यह सपना कुछ ही
दिनों में सत्य हो जाएगा । त्रिजटा के ऐसे बचन सुनकर सारी राक्षसियाँ डर गईं और
सीता जी के चरणों में गिर गईं । इसके बाद राक्षसियाँ जहाँ-तहाँ चलीं गईं । और सीता
जी अपने मन में चिंतित होकर सोचने लगीं कि नीच राक्षस एक महीना व्यतीत होने पर
मुझे मार डालेगा ।
सीता जी
त्रिजटा से हाथ जोड़कर बोलीं कि माता आप इस बिपति की घड़ी में मेरी संगिनी हो ।
लेकिन अब मुझसे दुसहनिये विरह सहा नहीं जाता । इसलिए कोई उपाय कीजिए जिससे मैं
अपनी देंह तज सकूँ । माता जी आप काठ ले आइये और चिता बना दीजिए और फिर उसमें आग
लगा दीजिए । रावण के काँटे के समान कानों को बीध डालने वाले बचन को कौन सुनें ? अतः हे बुद्धिमती राम जी के प्रति मेरी
प्रीति को सत्य कर दीजिए ।
सीताजी के ऐसे बचनों को सुनकर त्रिजटा ने उनका चरण
पकड़कर रामजी के प्रताप, बल और यश को सुनाकर समझाया । त्रिजटा ने कहा कि हे
सुकुमारी रात में अग्नि नहीं मिलेगी । ऐसा कहकर वह अपने घर को चली गई ।
सीता जी कहने लगीं कि
बिधाता ही मेरे प्रतिकूल हो गया है ।
इसलिए अग्नि नहीं मिलेगी और मेरा
दुख दूर नहीं होगा । आकाश में प्रगट रूप से (तारो में) अग्नि दिखाई दे रही है ।
लेकिन पृथ्वी पर कोई भी तारा नहीं आ रहा है । चंद्रमा अग्निमय दिख रहा है लेकिन वह
भी मुझे अभागी जानकर अग्नि स्रवावित नहीं कर रहा है । सीता जी अशोक वृक्ष से ही
कहने लगीं के अशोक आप ही मेरी विनती सुन लीजिए और मेरा शोक दूर करके अपने नाम को
सत्य कर दीजिए । आपके नए कोमल पत्ते अग्नि के समान के हैं (उनमें अग्नि का
आभास हो रहा है) । इसलिए आप मुझे अग्नि दे
दीजिए । जिससे मेरी वेदना और न बढ़े । यानी समाप्त हो जाए ।
इसप्रकार सीता जी को राम
जी के विरह में बहुत आकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी महाराज को एक कलप (लगभग चार
करोड़ बत्तीस लाख वर्ष) के समान व्यतीत हुआ ।
हनुमान जी महाराज ने
ह्रदय में बिचारकर, उचित समय जानकर राम जी की मुँदरी गिरा दी । सीता जी ने मुँदरी
की चमक को देखकर सोचा कि मानो अशोक वृक्ष ने अंगार दे दिया है । और यह सोचकर
हर्षित होकर उसे हाथ में ले लिया ।
।। जय श्रीहनुमान ।।
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