राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Saturday, October 18, 2025

सुन्दरकाण्ड-१४ - त्रिजटा का स्वप्न और हनुमान जी का अशोक वृक्ष से मुँदरी गिरना

 

लंका में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी रहती थी । जिसे रावण ने अशोक वाटिका में सीताजी की रखवाली में लगा रखा था । त्रिजटा निपुण बुद्धि वाली थी । और उसे राम जी के चरणों में अनुराग था । उसने सभी राक्षसियों को बुलाकर कहा कि सीता जी की सेवा करके अपना हित साधन कीजिए । क्योंकि मैंने एक सपना देखा है जिसमें एक बानर ने लंका को जला दिया है और सारी राक्षसी सेना का संहार कर दिया है । रावण गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है और उसकी बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं तथा सिर मुड़ा (केश रहित है ) हुआ है । और लंका का राज्य मानो विभीषण को मिल गया है ।

 

 सारे राज्य में राम जी के विजय का डंका बज रहा है और इसके बाद राम जी ने सीता जी को लंका से वापस अपने पास बुलवा लिया है । मैं जोर से कह रहीं हूँ कि यह सपना कुछ ही दिनों में सत्य हो जाएगा । त्रिजटा के ऐसे बचन सुनकर सारी राक्षसियाँ डर गईं और सीता जी के चरणों में गिर गईं । इसके बाद राक्षसियाँ जहाँ-तहाँ चलीं गईं । और सीता जी अपने मन में चिंतित होकर सोचने लगीं कि नीच राक्षस एक महीना व्यतीत होने पर मुझे मार डालेगा ।

 

 सीता जी त्रिजटा से हाथ जोड़कर बोलीं कि माता आप इस बिपति की घड़ी में मेरी संगिनी हो । लेकिन अब मुझसे दुसहनिये विरह सहा नहीं जाता । इसलिए कोई उपाय कीजिए जिससे मैं अपनी देंह तज सकूँ । माता जी आप काठ ले आइये और चिता बना दीजिए और फिर उसमें आग लगा दीजिए । रावण के काँटे के समान कानों को बीध डालने वाले बचन को कौन सुनें  ? अतः हे बुद्धिमती राम जी के प्रति मेरी प्रीति को सत्य कर दीजिए ।

 

सीताजी के ऐसे बचनों को सुनकर त्रिजटा ने उनका चरण पकड़कर रामजी के प्रताप, बल और यश को सुनाकर समझाया । त्रिजटा ने कहा कि हे सुकुमारी रात में अग्नि नहीं मिलेगी । ऐसा कहकर वह अपने घर को चली गई ।

 

सीता जी कहने लगीं कि बिधाता ही मेरे प्रतिकूल हो गया है ।  इसलिए अग्नि नहीं मिलेगी  और मेरा दुख दूर नहीं होगा । आकाश में प्रगट रूप से (तारो में) अग्नि दिखाई दे रही है । लेकिन पृथ्वी पर कोई भी तारा नहीं आ रहा है । चंद्रमा अग्निमय दिख रहा है लेकिन वह भी मुझे अभागी जानकर अग्नि स्रवावित नहीं कर रहा है । सीता जी अशोक वृक्ष से ही कहने लगीं के अशोक आप ही मेरी विनती सुन लीजिए और मेरा शोक दूर करके अपने नाम को सत्य कर दीजिए । आपके नए कोमल पत्ते अग्नि के समान के हैं (उनमें अग्नि का आभास  हो रहा है) । इसलिए आप मुझे अग्नि दे दीजिए । जिससे मेरी वेदना और न बढ़े । यानी समाप्त हो जाए ।

 

इसप्रकार सीता जी को राम जी के विरह में बहुत आकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी महाराज को एक कलप (लगभग चार करोड़ बत्तीस लाख वर्ष) के समान व्यतीत हुआ ।

 

हनुमान जी महाराज ने ह्रदय में बिचारकर, उचित समय जानकर राम जी की मुँदरी गिरा दी । सीता जी ने मुँदरी की चमक को देखकर सोचा कि मानो अशोक वृक्ष ने अंगार दे दिया है । और यह सोचकर हर्षित होकर उसे हाथ में ले लिया ।   

 

  जय श्रीराम   

  जय श्रीहनुमान   

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