राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Sunday, October 12, 2025

सुंदरकाण्ड-१३ अशोका वाटिका में सीताजी और रावण का संवाद

 

हनुमान जी महाराज ने फिर से वही छोटा सा आकर बना कर अशोक वन में प्रवेश कर गए । सीताजी को देखकर हनुमानजी महाराज ने मन ही मन प्रणाम किया । बैठे-बैठे ही सीताजी रात बिताती थीं । उनका शरीर दुबला हो गया था । सिर पर जटा थी जिसमें एक वेणी लगी हुई थी । वे अपने ह्रदय में राम जी के गुण समूहों का सुमिरण करती रहती थीं ।

 

सीताजी अपने नेत्रों को अपने पैरों की ओर ही लगाए थीं । और मन भगवान श्रीराम के चरण कमलों में लीन था । सीताजी को दुखी देखकर हनुमानजी को बड़ा दुख हुआ ।

 

हनुमान जी महाराज अशोक वाटिका में पहुँचकर पेड़ के पल्लव (पत्तों के समूह-झुरमुट) में अपने को छिपा लिए थे । और विचारकर रहे थे कि क्या करूँ । अर्थात सीता जी के सामने जाऊं अथवा पहले मुँदरी गिराकर फिर बाद में परिचय करूँ ।

 

इसी समय बहुत सी नारियों के साथ, राजसी ठाठ से रावण वहाँ आया । उसने सीता जी जी को अनेक तरह से समझाया । साम, दान भय और भेद का भी सहारा लिया । रावण ने कहा कि हे वुद्धिमती, सुमिखी सीता मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मंदोदरी आदि सभी रानियों को आपकी दासी बना दूँगा बस एक बार आप मुझे ‘विलोकि’ लीजिए-

 

‘तव अनुचरी करउँ पन मोरा । एक बार विलोकु मम ओरा’ ।।

 

 

जब सीता जी ने गंगा जी को प्रणाम करके आशीर्वाद माँगा था तो गंगा जी कहा कि हे रघुवीर प्रिय वैदेही आपका प्रभाव किसे पता नहीं है । जिसे एक बार आप विलोकि लेती हैं वह लोकपाल हो जाता है । सारी सिद्धियाँ हाँथ जोड़कर आपकी सेवा में रहती  हैं ।

 

‘लोकप होहिं विलोकत तोरे तोहिं सेवत सब सिधि कर जोरे ।।

 

रावण जब सीता जी का हरण करने के लिए पंचवटी गया था तो सीताजी को देखकर वह पहचान गया था कि ये तो जगतजननी हैं । इसलिए उसने मन ही मन सीता जी के चरण कमलों की वंदना की थी--‘मन महुं चरन वंदि सुख माना’ सीताजी के विलोकने मात्र से उसे विशिष्ट लोक की प्राप्ति हो जाती, उसके पाप क्षीण हो जाते और वह अवध्य हो जाता ।

 

तिनके की ओट करके परम स्नेही भगवान श्रीरामजी का सुमिरन करके सीता जी ने कहा कि हे रावण तू ऐसा क्यों नहीं समझ पाता कि नलिनी कभी जुगनूँ के प्रकाश से विकसित नहीं होती । उसे सूर्य का प्रकाश चाहिए होता है । अरे दुष्ट ! क्या रघुवीर राम जी के वाणों का प्रताप तुझे याद नहीं है (मारीच ने रामजी के वाणों का प्रताप रावण को सुनाया था ) । सीताजी ने कहा कि सूने से (रामजी और लक्ष्मणजी की अनुपस्थिति में चोरी से ) तूने मेरा हरण करके यहाँ ले आया है । हे अधम, निलज्ज तुझको इसपर (इस नीचता पर) लज्जा नहीं आती ।

 

अपने को जुगनूँ के समान और राम जी को सूर्य के समान सुनकर, तथा सीता जी के अन्य कठोर वचनों को सुनकर रावण बहुत ही खिसिया गया और तलवार निकालकर बोला कि सीता तुम मेरा अपमान कर रही हो और इसलिए इस कठिन (तीक्ष्ण) कृपाण से मैं तुम्हारा सिर काट डालूँगा । या तो मेरी बात मान लो अथवा तुम्हें अपने प्राण गवाँने पड़ेंगे ।

 

सीताजी ने कहा कि रावण  भगवान श्रीराम की भुजाएँ नीले कमल की रस्सी की भाँति बहुत सुंदर हैं । और हाथी के सूंड की तरह पुष्ट, लम्बी और मजबूत हैं । हे मूर्ख सुन ! या तो राम जी की भुजाएँ मेरे कंठ को स्पर्श करेंगी अथवा तेरी यह कठिन कृपाण- मेरी यह अटल प्रतिज्ञा है ।

सीता जी ने चन्द्रहास कृपाण से कहा कि राम जी के विरह रुपी अग्नि से जलने के परिताप को आप मिटा दीजिए । आपकी श्रेष्ठ धार तीक्ष्ण और सीतल है आप मेरे बड़े भारी दुख को दूर कर दीजिए । सीता जी के ऐसे वचनों को सुनकर रावण मारने के लिए दौड़ा, तब मंदोदरी ने नीति युक्त बाते कहकर उसे रोक दिया । तब रावण ने सभी राक्षसियों को बुलाकर कहा कि तुम लोग सीता को  तरह-तरह से भयभीति करो । यदि इन्होंने एक महीने में मेरा कहना नहीं माना तो फिर मैं अपनी कृपाण निकालकर इन्हें मार डालूँगा ।

 

रावण राक्षसियों को ऐसा आदेश देकर महल को चला गया । पिचासनियों के समूह तरह-तरह  के रूप बना-बनाकर सीता जी को डराने लगीं । हनुमानजी महाराज मन ही मन सोच रहे थे कि किस प्रकार माताजी से परिचय किया जाय । एक बार तो उनके मन में राक्षसियों को दंडित करने का बिचार आया लेकिन इससे सीताजी को रामजी का संदेश सुनाने में बांधा आ सकती थी इसलिए हनुमानजी ने इस बिचार को त्याग दिया । 


ग्रंथों में ऐसा भी वर्णन मिलता है कि रावण को भी स्वप्न से यह पता चल गया था कि हनुमानजी अशोक वाटिका में आ गए हैं इसलिए ही रावण सीताजी से सम्वाद करने आया, उनसे अशोभनीय बातें किया और उन्हें तलवार लेकर मारने दौड़ा और पिचासनियों को सीताजी को परेशान  करने के लिए बोल कर गया जिससे हनुमानजी जाकर रामजी से ये सब बताएं और रामजी जल्दी आकर उसका वध कर दें 

 

। जय श्रीराम 

। जय हनुमानजी 

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