सीता जी ने मुँदरी की चमक
को देखकर सोचा कि मानो अशोक वृक्ष ने अंगार दे दिया है । और यह सोचकर हर्षित होकर
उसे हाथ में ले लिया । हाथ में लेते ही उन्होंने
देखा कि यह तो परम सुंदर मन को हर लेने वाली मुद्रिका है जिस पर राम नाम अंकित हैं
।
वे चकित होकर उसे देख रही थीं । पहचानने पर
उन्हें हर्ष हुआ और फिर विषाद भी हुआ जिससे उनका ह्रदय अकुला उठा । उन्हें हर्ष इस
बात का हुआ कि यह तो राम जी के पास से आई है और राम जी की निशानी है । विषाद इस
बात का हुआ कि यह तो राम जी के पास थी
यहाँ कैसे आ गई ? सब कुछ ठीक तो है ।
वे मन में सोचने लगीं कि
राम जी तो अजेय हैं । उन्हें कोई देवता, दानव, नाग, गंधर्व, राक्षस आदि कोई भी
तीनों लोकों और चौदहों भुवनों में कोई भी नहीं जीत सकता । वहीं दूसरी ओर इसे माया
से बनाया भी नहीं जा सकता । फिर यह यहाँ कैसे आ गई ? सीता जी इसी तरह अनेकों विचार
कर रही थीं । तब हनुमान जी मधुर वाणी में राम जी के गुणगणों को गाने लगे । जिसे
सुनते ही सीता जी के सारे दुख दूर हो गए । यह राम जी की कथा और गुणों का प्रताप है
।
सीता जी मन लगाकर सुनने
लगीं और हनुमान जी ने आरंभ से सारी कथा सुना दिया । कथा शुरू से आरंभ करके पूरी ही
सुनानी चाहिए । और मन लगाकर कथा सुनने पर दुख तो दूर होते ही हैं ।
फिर सीता जी ने कहा कि भाई जिसने कानों को अमृत तुल्य कथा सुनाई है
वे प्रगट क्यों नहीं होते । राम कथा अमृत तुल्य ही है जो जीवन में नवीनता लाती है ।
आशा देकर निराशा का अंत करती है । बशर्ते कथा को मन लगाकर किसी रामभक्त वक्ता से
सुना जाय ।
यह सुनकर हनुमानजी सीताजी
के थोड़ा पास गए । हनुमानजी को देखकर सीताजी को संदेह हुआ । आश्चर्य हुआ । इसलिए वे
हनुमान जी के तरफ पीठ करके बैठ गईं । लंका माया नगरी थी । यहाँ के राक्षस तरह-तरह
की मायावी विद्याएँ जानते थे । और राक्षस
तरह-तरह के रूप भी धरना जानते थे । इसलिए सीता जी को संदेह हुआ कि कहीं यह धोखा तो
नहीं है ।
तब हनुमान जी महाराज बोले
कि हे माता जानकी मैं भगवान राम का दूत हूँ । मैं करुणानिधान की सच्ची शपथ करके कह रहा हूँ । भगवान राम के अनेकों नाम हैं । वे बहुनाम हैं ।
उनका एक नाम करुणानिधान भी है । यह नाम सीता जी को बहुत प्रिय है । विवाह के पूर्व
ही पार्बतीजी ने सबसे पहले रामजी के इस नाम से सीताजी को परिचित कराया था । इसलिए
सीताजी रामजी को करुणानिधान ही कहती हैं ।
सीताजी को विश्वास हो जाय कि हनुमानजी को रामजी
ने ही भेजा है इसलिए हनुमानजी ने करुणानिधान नाम का ही प्रयोग किया । हनुमानजी
महाराज बोले कि हे माता यह मुद्रिका मैंने ही लाई है । राम जी ने आपको अपनी निशानी
यह मुद्रिका दिया है ।
सीता जी ने हनुमानजी से कहा कि नर और वानर का
संग कैसे हुआ । किस प्रकार हुआ । आप यह बताएँ । तब हनुमान जी ने रामजी की और
सुग्रीवजी की मित्रता की सारी कथा सीताजी को कह सुनाई ।
हनुमानजी के प्रेमपूर्वक कहे हुए बचनों को सुनकर सीताजी
को हनुमानजी पर विश्वास हो गया । सीताजी ने जान लिया कि मन, वचन और कर्म से
हनुमानजी कृपा से सागर रामजी के सेवक हैं ।
।। जय श्रीराम ।।
।। जय श्रीहनुमानजी ।।