राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।
अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहिं श्रीरघुराई ।।

Wednesday, November 12, 2025

श्रीसुन्दरकाण्ड भाग-१५- सीताजी का रामनामांकित मुँदरी को पहचानना और हनुमानजी से परिचय

 

सीता जी ने मुँदरी की चमक को देखकर सोचा कि मानो अशोक वृक्ष ने अंगार दे दिया है । और यह सोचकर हर्षित होकर उसे हाथ में ले लिया ।  हाथ में लेते ही उन्होंने देखा कि यह तो परम सुंदर मन को हर लेने वाली मुद्रिका है जिस पर राम नाम अंकित हैं ।


  वे चकित होकर उसे देख रही थीं । पहचानने पर उन्हें हर्ष हुआ और फिर विषाद भी हुआ जिससे उनका ह्रदय अकुला उठा । उन्हें हर्ष इस बात का हुआ कि यह तो राम जी के पास से आई है और राम जी की निशानी है । विषाद इस बात का हुआ कि यह तो राम जी के पास थी  यहाँ कैसे आ गई ? सब कुछ ठीक तो है ।


वे मन में सोचने लगीं कि राम जी तो अजेय हैं । उन्हें कोई देवता, दानव, नाग, गंधर्व, राक्षस आदि कोई भी तीनों लोकों और चौदहों भुवनों में कोई भी नहीं जीत सकता । वहीं दूसरी ओर इसे माया से बनाया भी नहीं जा सकता । फिर यह यहाँ कैसे आ गई ? सीता जी इसी तरह अनेकों विचार कर रही थीं । तब हनुमान जी मधुर वाणी में राम जी के गुणगणों को गाने लगे । जिसे सुनते ही सीता जी के सारे दुख दूर हो गए । यह राम जी की कथा और गुणों का प्रताप है ।


सीता जी मन लगाकर सुनने लगीं और हनुमान जी ने आरंभ से सारी कथा सुना दिया । कथा शुरू से आरंभ करके पूरी ही सुनानी चाहिए । और मन लगाकर कथा सुनने पर दुख तो दूर होते ही हैं ।


फिर सीता जी ने कहा  कि भाई जिसने कानों को अमृत तुल्य कथा सुनाई है वे प्रगट क्यों नहीं होते । राम कथा अमृत तुल्य ही है जो जीवन में नवीनता लाती है । आशा देकर निराशा का अंत करती है । बशर्ते कथा को मन लगाकर किसी रामभक्त वक्ता से सुना जाय ।


यह सुनकर हनुमानजी सीताजी के थोड़ा पास गए । हनुमानजी को देखकर सीताजी को संदेह हुआ । आश्चर्य हुआ । इसलिए वे हनुमान जी के तरफ पीठ करके बैठ गईं । लंका माया नगरी थी । यहाँ के राक्षस तरह-तरह की मायावी विद्याएँ जानते थे । और  राक्षस तरह-तरह के रूप भी धरना जानते थे । इसलिए सीता जी को संदेह हुआ कि कहीं यह धोखा तो नहीं है ।


तब हनुमान जी महाराज बोले कि हे माता जानकी मैं भगवान राम का दूत हूँ । मैं   करुणानिधान की सच्ची शपथ करके कह रहा हूँ ।  भगवान राम के अनेकों नाम हैं । वे बहुनाम हैं । उनका एक नाम करुणानिधान भी है । यह नाम सीता जी को बहुत प्रिय है । विवाह के पूर्व ही पार्बतीजी ने सबसे पहले रामजी के इस नाम से सीताजी को परिचित कराया था । इसलिए सीताजी रामजी को करुणानिधान ही कहती हैं ।


  सीताजी को विश्वास हो जाय कि हनुमानजी को रामजी ने ही भेजा है इसलिए हनुमानजी ने करुणानिधान नाम का ही प्रयोग किया । हनुमानजी महाराज बोले कि हे माता यह मुद्रिका मैंने ही लाई है । राम जी ने आपको अपनी निशानी यह मुद्रिका दिया है ।


 सीता जी ने हनुमानजी से कहा कि नर और वानर का संग कैसे हुआ । किस प्रकार हुआ । आप यह बताएँ । तब हनुमान जी ने रामजी की और सुग्रीवजी की मित्रता की सारी कथा सीताजी को कह सुनाई ।


हनुमानजी के प्रेमपूर्वक कहे हुए बचनों को सुनकर सीताजी को हनुमानजी पर विश्वास हो गया । सीताजी ने जान लिया कि मन, वचन और कर्म से हनुमानजी कृपा से सागर रामजी के सेवक हैं ।

 

।। जय श्रीराम ।।

।। जय श्रीहनुमानजी ।।

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